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Smartphone के कैमरे का विभिन्न प्रकार से प्रयोग करे

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समान्यत: हम लोग अपने Smartphone के कैमरे का प्रयोग फोटो खिचने के लिए करते है। पर क्या अपने ये सोचा है की हम इसका इस्तेमाल Image लेने के साथ-साथ और भी प्रकार से कर सकते है?

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Smartphone के कैमरे का प्रयोग नीचे दिये गए विभिन्न प्रकारो से भी किया जा सकता है। जिससे आप अपने स्मार्ट फोन की उपयोगिता बढ़ा सकते है।

  • वेबकैम(Webcam) की तरह

अगर आप अपने Smartphone पर इंटरनेट का प्रयोग करते है तो आप अपने फोन के Front Camera को वेबकैम की तरह Use कर के Facebook, Skype और अन्य Messenger सर्विस से Video Chat कर सकते है।

आप अपने पुराने कम्प्युटर को भी स्मार्टफोन से कनैक्ट कर के स्मार्टफोन के कैमरे को वेबकैम की तरह प्रयोग कर सकते है। इसके लिए आपको वेबकैम एप्लिकेशन की आवश्यकता होगी जो लगभग हर स्मार्टफोन ऑपरेटिंग सिस्टम पर उपलब्ध है। आपको App store से उसे Download और Install करना होगा।

  • यादगार या स्मृति (Memory)

Smartphone के Camera से आप आप अपने जीवन के यादगार पालो को फोटो के रूप मे सहेज कर रख सकते है। साथ ही साथ आप उससे यह भी पता कर सकते है कि यह फोटो किस Date का है। इस प्रकार आप इसका इस्तेमाल Memory के रूप मे कर सकते है।

  • स्कैनर कि तरह

आप अपने Smartphone के कैमरा को स्कैनर की तरह भी इस्तेमाल कर सकते है। इसके लिए आपको अपने फोन पर Scanner App इन्स्टाल करना होगा, जो लगभग हर स्मार्टफोन ऑपरेटिंग सिस्टम पर उपलब्ध है। आपको App store से उसे Download और Install करना होगा। इससे आप किसी भी डॉकयुमेंट को स्कैन, शेयर या अलग-अलग फ़ारमैट में सेव भी कर सकते है।

  • सुरक्षा के लिए

सुरक्षा के लिए भी स्मार्टफोन के कैमरा का प्रयोग किया जा सकता है। आप अपने Smartphone के कैमरा से किशि व्यक्ति विशेष की संदिग्ध गतिविधियों को रिकॉर्ड कर सकते है। आप इससे किसी व्यक्ति, वस्तु, स्थान आदि का फोटो अथवा विडियो Capture कर के साक्ष्य के रूप में भी उनका इस्तेमाल कर सकते है।

  • Printed Book के Images को Edit करने के लिए

आजकल Printed Books के Images को Capture करके उनके Text को Editable बनाने में भी स्मार्टफोन के कैमरा का प्रयोग खूब हो रहा है। इसके लिए आपको अपने फोन पर OCR App इन्स्टाल करना होगा, जो लगभग हर स्मार्टफोन ऑपरेटिंग सिस्टम पर उपलब्ध है। आपको App store से उसे Download और Install करना होगा।

  • Emergency Mirror के रूप मे

कभी कभी हम अपने घर से बाहर रहते है और हुमे अपने Face को देखने अथवा अपने बाल सही करने की जरूरत महसूस होती है। इस परिस्थिति में हम अपने स्मार्टफोन के कैमरा को Emergency Mirror के रूप में प्रयोग कर सकते है।

  • Bar या QR कोड स्कैनर

आज कल Bar एवं QR Code का इस्तेमाल लगभग हर समान पर होता है। इसमे उस समान या वस्तु के बारे में सारी जानकारी रहती है। आप अपने Smartphone के कैमरा को Bar एवं QR Code स्कैनर के रूप मे भी इस्तमल कर सकते है। इसके लिए आपको अपने फोन पर OCR App इन्स्टाल करना होगा, जो लगभग हर स्मार्टफोन ऑपरेटिंग सिस्टम पर उपलब्ध है।

QR एवं Bar स्कैनर से आप दो या अधिक सामानो के मूल्य को भी Compare कर सकते है।

आपके सुझाव का स्वागत है…

दो भाई…प्रेमचंद (Do Bhai by Premchand)

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प्रातःकाल सूर्य की सुहावनी सुनहरी धूप-में कलावती दोनों बेटों को जाँघों पर बैठा दूध और रोटी खिलाती थी। केदार बड़ा था, माधव छोटा। दोनों मुँह में कौर लिये, कई पग उछल-कूदकर फिर जाँघों पर आ बैठते और अपनी तोतली बोली में उस प्रार्थना की रट लगाते थे, जिसमें एक पुराने सुहृदय कवि ने किसी जाड़े के सताए हुए बालक के हृदयोद्गार को प्रकट किया है—

‘दैव-दैव, घाम करो, तुम्हारे बालक को लगता जाड़ा।’

माँ उन्हें चुमकारकर बुलाती और बड़े-बड़े कौर खिलाती। उसके हृदय में प्रेम की उमंग थी और नेत्रों में गर्व की झलक। दोनों भाई बड़े हुए। साथ-साथ गले में बाँहें डाले खेलते थे। केदार की बुद्धि चुस्त थी, माधव का शरीर। दोनों में इतना स्नेह था कि साथ-साथ पाठशाला जाते, साथ-साथ खाते और साथ-साथ ही रहते थे।

दोनों भाइयों का ब्याह हुआ। केदार की बहू चम्पा अमित भाषिणी और चंचला थी। माधव की बहू श्यामा साँवली सलोनी, रूपराशि की खानि थी। बड़ी ही मृदुभाषिणी, बड़ी ही सुशीला और शांत स्वभाव थी।

केदार चम्पा पर मोहे और माधव श्यामा पर रीझे। परन्तु कलावती का मन किसी से न मिला। वह दोनों से प्रसन्न और दोनों से अप्रसन्न थी। उसकी शिक्षा-दीक्षा का बहुत अंश इस व्यर्थ के प्रयत्न में व्यय होता था कि चम्पा अपनी कार्यकुशलता का एक भाग श्यामा के शांत स्वभाव से बदल ले।

दोनों भाई संतानवान हुए। हरा-भरा वृक्ष खूब फैला और फलों से लद गया ! कुत्सित वृक्ष में केवल एक फल दृष्टिगोचर हुआ, वह भी कुछ पीला-सा मुरझाया हुआ। किन्तु दोंनों अप्रसन्न थे। माधव को धन-सम्पत्ति की लालसा थी और केदार को संतान की अभिलाषा। भाग्य की इस कूटनीति ने शनैः-शनैः द्वेष का रूप धारण किया, जो स्वाभाविक था। श्यामा अपने लड़कों को सँवारने-सुधारने में लगी रहती; उसे सिर उठाने की फुरसत नहीं मिलता थी। बेचारी चम्पा को चूल्हे में जलना और चक्की में पिसना पड़ता। यह अनीति कभी-कभी कटु शब्दों में निकल जाती। श्यामा सुनती, कुढ़ती और चुपचाप सह लेती। परन्तु उसकी यह सहनशीलता चम्पा के क्रोध को शांत करने के बदले और बढ़ाती। यहाँ तक कि प्याला लबालब भर गया। हिरन भागने की राह न पाकर शिकारी की तरफ लपका। चम्पा और श्यामा समकोण बनाने वाली रेखाओं की भाँति अलग हो गई। उस दिन एक ही घर में दो चूल्हे जले, परन्तु भाइयों ने दाने की सूरत न देखी और कलावती सारे दिन रोती रही।

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कई वर्ष बीत गए। दोनों भाई जो किसी समय एक ही पालथी पर बैठते थे, एक ही थाली में खाते थे और एक ही छाती से दूध पीते थे, उन्हें अब एक घर में, एक गाँव में रहना कठिन हो गया। परन्तु कुल की साख में बट्टा न लगे, इसलिए ईर्ष्या और द्वेष की धधकी हुई आग को राख के नीचे दबाने की व्यर्थ चेष्टा की जाती थी। उन लोगों में अब भ्रात-स्नेह न था। केवल भाई के नाम की लाज थी। माँ अब भी जीवित थी, पर दोनों बेटों का वैमनस्य देखकर आँसू बहाया करती। हृदय में प्रेम था, पर नेत्रों में अभिमान न था। कुसुम वही था, परंतु वह छटा न थी।

दोनों भाई जब लड़के थे, तब एक को रोते देख, दूसरा भी रोने लगता था। तब वे नादान, बेसमझ और भोले थे। आज एक को रोते हुए देख, दूसरा हँसता और तालियाँ बजाता ! वह समझदार और बुद्धिमान हो गए थे।
जब उन्हें अपने-पराये की पहचान न थी। उस समय यदि कोई छेड़ने के लिए एक को अपने साथ ले जाने की धमकी देता, तो दूसरा जमीन पर लोट जाता, और उस आदमी का कुर्ता पकड़ लेता। अब यदि एक भाई को मृत्यु भी धमकाती, तो दूसरे के नेत्रों में आँसू न आते। अब उन्हें अपने-पराये की पहचान हो गई थी।

बेचारे माधव की दशा शोचनीय थी। खर्च अधिक था और आमदनी कम। उस पर कुल-मर्यादा का निर्वाह। हृदय चाहे रोए, पर होंठ हँसते रहें। हृदय चाहे मलिन हो, पर कपड़े मैले न हों। चार पुत्र थे, चार पुत्रियाँ और आवश्यक वस्तुएँ मोतियों के मोल। कुछ पाइयों की जमींदारी कहाँ तक सम्हालती ? लड़कों का ब्याह अपने बस की बात थी, पर लड़कियों का विवाह कैसे टल सकता था ? दो पाई जमीन पहली कन्या के विवाह की भेंट हो गई। उस पर भी बाराती बिना भात खाए आँगन से उठ गए। शेष दूसरी कन्या के विवाह में निकल गई। साल बाद तीसरी लड़की का विवाह हुआ, पेड़-पत्ते भी न बचे। हाँ, अबकी डाल भरपूर थी। परंतु दरिद्रता और धरोहर में वही सम्बन्ध है, जो मांस और कुत्ते में।

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इस कन्या का अभी गौना न हुआ था कि माधव पर दो साल के बकाया लगान का वारंट आ पहुँचा। कन्या के गहने गिरो (बंधक) रखे गए। गला छूटा। चम्पा इसी समय की ताक में थी। तुरंत नए-नए नातेदारों को सूचना दी, तुम लोग बेसुध बैठे हो, यहाँ गहनों का सफाया हुआ जाता है। दूसरे दिन एक नाई और दो ब्राह्मण माधव के दरवाजे पर आकर बैठ गए। बेचारे के गले में फाँसी पड़ गई। रुपये कहाँ से आएँ? न जमीन, न जायदाद, न बाग, न बगीचा। रहा विश्वास, वह कभी का उठ चुका था। अब यदि कोई संपत्ति थी, तो केवल वही दो कोठरियाँ, जिनमें उसने अपनी सारी आयु बितायी थी और उनका कोई ग्राहक न था। विलंब से नाक कटी जाती थी। विवश होकर केदार के पास आया और आँखों में आँसू भरे बोला—भैया, इस समय मैं बड़े संकट में हूँ, मेरी सहायता करो।

केदार ने उत्तर दिया— मद्धू ! आजकल मैं भी तंग हो रहा हूँ, तुमसे सच कहता हूँ।

चम्पा अधिकारपूर्ण स्वर से बोली—अरे तो क्या इनके लिए भी तंग हो रहे हैं ? अलग भोजन करने से क्या इज्जत अलग हो जाएगी ?

केदार ने स्त्री की ओर कनखियों से ताककर कहा—नहीं, नहीं, मेरा यह प्रयोजन नहीं था। हाथ तंग है तो क्या, कोई न कोई प्रबंध किया ही जाएगा।

चम्पा ने माधव से पूछा—पाँच बीस, से कुछ ऊपर ही पर गहने रखे थे न ? माधव ने उत्तर दिया—हाँ ! ब्याज सहित कोई सवा सौ रुपये होते हैं।

केदार रामायण पढ़ रहे थे। फिर पढ़ने में लग गए। चम्पा ने तत्त्व की बातचीत शुरू की—रुपया बहुत है, हमारे पास होता, तो कोई बात न थी, परंतु हमें भी दूसरे से दिलाना पड़ेगा और महाजन बिना कुछ लिखाए-पढ़ाए रुपया देते नहीं।

माधव ने सोचा, यदि मेरे पास कुछ लिखाने-पढ़ाने को होता, तो क्या और महाजन मर गए थे, तुम्हारे दरवाजे क्यों आता ? बोला—लिखने-पढ़ने को मेरे पास है ही क्या ? जो कुछ जगह-जायदाद है, वह यही घर है।

केदार और चम्पा ने एक दूसरे को मर्मभेदी नयनों से देखा और मन-ही-मन कहा—क्या आज सचमुच जीवन की प्यारी अभिलाषाएँ पूरी होंगी ? परंतु हृदय की यह उमंग मुँह तक आते-आते गंभीररूप धारण कर गई। चंपा बड़ी गंभीरता से बोली—घर पर तो कोई महाजन कदाचित ही रुपया दे। शहर हो तो कुछ किराया ही आवे, पर गँवई में तो कोई सेंत में रहने वाला भी नहीं। फिर साझे की चीज ठहरी।

केदार डरे कि कहीं चंपा की कठोरता से खेल बिगड़ न जाय। बोले—एक महाजन से मेरी जान-पहचान है, वह कदाचित कहने-सुनने में आ जाय।

चम्पा ने गर्दन हिलाकर इस युक्ति की सराहना की और बोली—पर दो-तीन बीसी से अधिक मिलना कठिन है।

केदार ने जान पर खेलकर कहा—अरे, बहुत दबाने से चार बीसी हो जाएँगे और क्या ?

अबकी चम्पा ने तीव्रदृष्टि से केदार को देखा और अनमनी—सी होकर बोली—महाजन ऐसे अंधे नहीं होते।

माधव अपने भाई-भावज के इस गुप्त रहस्य को कुछ-कुछ समझता था। वह चकित था कि इतनी बुद्धि कहाँ से मिल गई। बोला—और रुपये कहाँ से आएँगे।

चम्पा चिढ़कर बोली—और रुपयों के लिए और फिक्र करो। सवा सौ रुपये इन दो कोठरियों के इस जन्म में कोई न देगा। चार बीसी चाहो, तो एक महाजन से दिला दूँ, लिखा-पढ़ी कर लो।

माधव इन रहस्यमय बातों से सशंक हो गया। उसे भय हुआ कि यह लोग मेरे साथ कोई गहरी चाल चल रहे हैं। दृढ़ता के साथ अड़कर बोला—और कौन-सी फिक्र करूँ? गहने होते तो कहता, लाओ रख दूँ। यहाँ तो कच्चा सूत भी नहीं है। जब बदनाम हुए तो क्या दस के लिए, क्या पचास के लिए, दोनों एक ही बात है। यदि घर बेचकर मेरा नाम रह जाय, तो यहाँ तक स्वीकार है; परन्तु घर भी बेचूँ और उस पर प्रतिष्ठा धूल में मिले, ऐसा मैं न करूँगा केवल नाम का ध्यान है, नहीं एक बार नहीं कर जाऊँ, तो मेरा कोई क्या करेगा ? और सच पूछो तो मुझे अपने नाम की कोई चिंता नहीं है। मुझे कौन जानता है ? संसार तो भैया को हँसेगा।

केदार का मुँह सूख गया। चम्पा भी चकरा गई ! वह बड़ी चतुर वाक् निपुण रमणी थी। उसे माधव-जैसे गँवार से ऐसी दृढ़ता की आशा न थी। उसकी ओर आदर से देखकर बोली—लाल कभी-कभी तुम भी लड़कों की सी बातें करते हो। भला, इस झोपड़ी पर कौन सौ रुपये निकालकर देगा ? तुम सवा सौ के बदले सौ ही दिलाओ, मैं आज ही अपना हिस्सा बेचती हूँ। उतनी ही मेरी भी तो है। घर पर तो तुमको वही चार बीस मिलेंगे। हाँ, और रुपयों का प्रबंध हम आप कर देंगे। इज्जत हमारी-तुम्हारी एक ही है, वह न जाने पाएगी। वह रुपया अलग खाते में चढ़ा लिया जाएगा।

माधव की इच्छाएँ पूरी हुईं। उसने मैदान मार लिया ! सोचने लगा कि मुझे तो रुपयों से काम है, चाहे एक नहीं, दस खाते में चढ़ा लो। रहा मकान, वह जीते-जी नहीं छोड़ेने का। प्रसन्न होकर चला। उसके जाने के बाद केदार और चंपा ने कपट भेष त्याग दिया और देर तक एक-दूसरे को इस सौदे का दोषी सिद्ध करते रहे। अंत में मन को इस तरह संतोष दिया को भोजन बहुत मधुर नहीं, किन्तु भर–कठौती तो है। घर, हाँ, देखेंगे कि श्यामा रानी इस घर में कैसे राज करती है ?

केदार के दरवाजे पर दो बैल खड़े हैं। इनमें कितनी संघशक्ति, कितनी मित्रता और कितनी प्रेम है। दोनों एक ही जुएं में चलते हैं बस इनमें इतना ही नाता है। किन्तु अभी कुछ दिन हुए, जब इनमें से एक चम्पा के मैके मँगनी गया था, तो दूसरे ने तीन दिन तक नाँद में मुँह नहीं डाला। परन्तु शोक, एक गोद के खेले भाई, एक छाती से दूध पीनेवाले आज इतने बेगाने हो रहे हैं कि एक घर में रहना भी नहीं चाहते।

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प्रातःकाल था। केदार के द्वार पर गाँव के मुखिया और नंबरदार विराजमान थे। मुंशी दातादयाल अभिमान से चारपाई पर बैठे रेहन का मसविदा तैयार करने में लगे थे। बारंबार कलम बनाते और बारंबार खत रखते, पर खत की शान न सुधरती। केदार का मुखारविंद विकसित था और चम्पा फूली नहीं समाती थी। माधव कुम्हलाया और म्लान था।

मुखिया ने कहा भाई ऐसा हितू, न भाई ऐसा शत्रु। केदार ने छोटे भाई की लाज रख ली।

नंबरदार ने अनुमोदन किया— भाई हो तो ऐसा हो।

मुख्तार ने कहा— भाई, सपूतों का यही काम है।

दातादयाल ने पूछा— रेहन लिखने वाले का नाम ?

बड़े भाई बोले— माधव वल्द शिवदत्त।

‘और लिखवाने वाले का ?’

‘केदार वल्द शिवदत्त।’

माधव ने बड़े भाई की ओर चकित होकर देखा। आँखें डबडबा आयीं। केदार उसकी ओर न देख सका। नम्बरदार, मुखिया और मुख्तार भी विस्मित हुए। क्या केदार खुद ही रुपया दे रहा है ? बातचीत तो किसी साहूकार की थी। जब घर ही में रुपया मौजूद है, तो इस रेहननामे की आवश्यकता ही क्या थी ? भाई-भाई में इतना अविश्वास ! अरे, राम ! राम ! क्या माधव 80 रुपये को भी मँहगा है ! और यदि दबा भी बैठता, तो क्या रुपये पानी में चले जाते ?

सभी की आँखें सैन द्वारा परस्पर बातें करने लगीं, मानो आश्चर्य की अथाह नदी में नौकाएँ डगमगाने लगीं।

श्यामा दरवाजे की चौखट पर खड़ी थी। वह सदा केदार की प्रतिष्ठा करती थी, परन्तु आज केवल लोक-रीति ने उसे अपने जेठ को आड़े हाथों में लेने से रोका।

बूढ़ी अम्मा ने सुना, तो सूखी नदी उमड़ आयी। उसने एक बार आकाश की ओर देखा और माथा ठोक लिया।

तब उसे उस दिन का स्मरण हुआ, जब ऐसा ही सुहावना सुनहरा प्रभात था और दो प्यारे-प्यारे बच्चे उसकी गोद में बैठे हुए उछल-कूदकर दूध-रोटी खाते थे। उस समय माता के नेत्रों में कितना अभिमान था, हृदय में कितनी उमंग और कितना उत्साह!

परन्तु आज, आह ! आज नयनों में लज्जा है और हृदय में शोक–संताप उसने पृथ्वी की ओर देखकर कातर स्वर में कहा—हे नारायण ! क्या ऐसे पुत्रों को मेरी ही कोख में जन्म लेना था !

संदर्भ – प्रस्तुत कहानी हिन्दी साहित्य जगत के कथानायक प्रेमचंद की रचना है। अपने लेखन काल मे प्रेमचंद ने सैकड़ो कहानियां लिखी। उन्होने ने हिन्दी लेखन में यथार्थवाद की शुरुआत की। उनके रचनाओ में हने कई रंग देखने को मिलते है। मुख्य रूप से प्रेमचंद ने तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियो का सजीव वर्णन अपने साहित्यिक रचना के माध्यम से किया है। उनकी रचनाओ में हमे तत्कालीन दलित समाज, स्त्री दशा एवं समाज में व्याप्त विसंगतियाँ का दर्शन प्रत्यक्ष रूप से होता है।
प्रेमचंद के संक्षिप्त जीवन परिचय जानने के लिए यहाँ क्लिक करे

आखिरी मंजिल….प्रेमचंद (Akhari Manzil by Premchand)

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आह ? आज तीन साल गुजर गए, यही मकान है, यही बाग है, यही गंगा का किनारा, यही संगमरमर का हौज। यही मैं हूँ और यही दरोदीवार। मगर इन चीजों से दिल पर कोई असर नहीं होता। वह नशा जो गंगा की सुहानी और हवा के दिलकश झौंकों से दिल पर छा जाता था। उस नशे के लिए अब जी तरस-जरस के रह जाता है। अब वह दिल नही रहा। वह युवती जो जिंदगी का सहारा थी अब इस दुनिया में नहीं है।
मोहिनी ने बड़ा आकर्षक रूप पाया था। उसके सौंदर्य में एक आश्चर्यजनक बात थी। उसे प्यार करना मुश्किल था, वह पूजने के योग्य थी। उसके चेहरे पर हमेशा एक बड़ी लुभावनी आत्मिकता की दीप्ति रहती थी। उसकी आंखे जिनमें लाज और गंभीरता और पवित्रता का नशा था, प्रेम का स्रोत थी। उसकी एक-एक चितवन, एक-एक क्रिया; एक-एक बात उसके ह्रदय की पवित्रता और सच्चाई का असर दिल पर पैदा करती थी। जब वह अपनी शर्मीली आंखों से मेरी ओर ताकती तो उसका आकर्षण और असकी गर्मी मेरे दिल में एक ज्वारभाटा सा पैदा कर देती थी। उसकी आंखों से आत्मिक भावों की किरनें निकलती थीं मगर उसके होठों प्रेम की बानी से अपरिचित थे। उसने कभी इशारे से भी उस अथाह प्रेम को व्यक्त नहीं किया जिसकी लहरों में वह खुद तिनके की तरह बही जाती थी। उसके प्रेम की कोई सीमा न थी। वह प्रेम जिसका लक्ष्य मिलन है, प्रेम नहीं वासना है। मोहिनी का प्रेम वह प्रेम था जो मिलने में भी वियोग के मजे लेता है। मुझे खूब याद है एक बार जब उसी हौज के किनारे चॉँदनी रात में मेरी प्रेम – भरी बातों से विभोर होकर उसने कहा था-आह ! वह आवाज अभी मेरे ह्रदय पर अंकित है, ‘मिलन प्रेम का आदि है अंत नहीं।’ प्रेम की समस्या पर इससे ज्यादा शनदार, इससे ज्यादा ऊंचा ख्याल कभी मेरी नजर में नहीं गुजरा। वह प्रेम जो चितावनो से पैदा होता है और वियोग में भी हरा-भरा रहता है, वह वासना के एक झोंके को भी बर्दाश्त नहीं कर सकता। संभव है कि यह मेरी आत्मस्तुति हो मगर वह प्रेम, जो मेरी कमजोरियों के बावजूद मोहिनी को मुझसे था उसका एक कतरा भी मुझे बेसुध करने के लिए काफी था। मेरा हृदय इतना विशाल ही न था, मुझे आश्चर्य होता था कि मुझमें वह कौन-सा गुण था जिसने मोहिनी को मेरे प्रति प्रेम से विह्वल कर दिया था। सौन्दर्य, आचरण की पवित्रता, मर्दानगी का जौहर यही वह गुण हैं जिन पर मुहब्बत निछावर होती है। मगर मैं इनमें से एक पर भी गर्व नहीं कर सकता था। शायद मेरी कमजोरियॉँ ही उस प्रेम की तड़प का कारण थीं।
मोहिनी में वह अदायें न थीं जिन पर रंगीली तबीयतें फिदा हो जाया करती हैं। तिरछी चितवन, रूप-गर्व की मस्ती भरी हुई आंखें, दिल को मोह लेने वाली मुस्कराहट, चंचल वाणी, उनमें से कोई चीज यहॉँ न थी! मगर जिस तरह चॉँद की मद्धिम सुहानी रोशनी में कभी-कभी फुहारें पड़ने लगती हैं, उसी तरह निश्छल प्रेम में उसके चेहरे पर एक मुस्कराहट कौंध जाती और आंखें नम हो जातीं। यह अदा न थी, सच्चे भावों की तस्वीर थी जो मेरे हृदय में पवित्र प्रेम की खलबली पैदा कर देती थी।

शाम का वक्त था, दिन और रात गले मिल रहे थे। आसमान पर मतवाली घटायें छाई हुई थीं और मैं मोहिनी के साथ उसी हौज के किनारे बैठा हुआ था। ठण्डी-ठण्डी बयार और मस्त घटायें हृदय के किसी कोने में सोते हुए प्रेम के भाव को जगा दिया करती हैं। वह मतवालापन जो उस वक्त हमारे दिलों पर छाया हुआ था उस पर मैं हजारों होशमंदियों को कुर्बान कर सकता हूँ। ऐसा मालूम होता था कि उस मस्ती के आलम में हमारे दिल बेताब होकर आंखों से टपक पड़ेंगे। आज मोहिनी की जबान भी संयम की बेड़ियों से मुक्त हो गई थी और उसकी प्रेम में डूबी हुई बातों से मेरी आत्मा को जीवन मिल रहा था।
एकाएक मोहिनी ने चौंककर गंगा की तरफ देखा। हमारे दिलों की तरह उस वक्त गंगा भी उमड़ी हुई थी।
पानी की उस उद्विग्न उठती-गिरती सतह पर एक दिया बहता हुआ चला जाता था और और उसका चमकता हुआ अक्स थिरकता और नाचता एक पुच्छल तारे की तरह पानी को आलोकित कर रहा था। आह! उस नन्ही-सी जान की क्या बिसात थी! कागज के चंद पुर्जे, बांस की चंद तीलियां, मिट्टी का एक दिया कि जैसे किसी की अतृप्त लालसाओं की समाधि थी जिस पर किसी दुख बँटानेवाले ने तरस खाकर एक दिया जला दिया था मगर वह नन्हीं-सी जान जिसके अस्तित्व का कोई ठिकाना न था, उस अथाह सागर में उछलती हुई लहरों से टकराती, भँवरों से हिलकोरें खाती, शोर करती हुई लहरों को रौंदती चली जाती थी। शायद जल देवियों ने उसकी निर्बलता पर तरस खाकर उसे अपने आंचलों में छुपा लिया था।
जब तक वह दिया झिलमिलाता और टिमटिमाता, हमदर्द लहरों से झकोरे लेता दिखाई दिया। मोहिनी टकटकी लगाये खोयी-सी उसकी तरफ ताकती रही। जब वह आंख से ओझल हो गया तो वह बेचैनी से उठ खड़ी हुई और बोली- मैं किनारे पर जाकर उस दिये को देखूँगी।
जिस तरह हलवाई की मनभावन पुकार सुनकर बच्चा घर से बाहर निकल पड़ता है और चाव-भरी आंखों से देखता और अधीर आवाजों से पुकारता उस नेमत के थाल की तरफ दौड़ता है, उसी जोश और चाव के साथ मोहिनी नदी के किनारे चली।
बाग से नदी तक सीढ़ियॉँ बनी हुई थीं। हम दोनों तेजी के साथ नीचे उतरे और किनारे पहुँचते ही मोहिनी ने खुशी के मारे उछलकर जोर से कहा-अभी है! अभी है! देखो वह निकल गया!
वह बच्चों का-सा उत्साह और उद्विग्न अधीरता जो मोहिनी के चेहरे पर उस समय थी, मुझे कभी न भूलेगी। मेरे दिल में सवाल पैदा हुआ, उस दिये से ऐसा हार्दिक संबंध, ऐसी विह्वलता क्यों? मुझ जैसा कवित्वशून्य व्यक्ति उस पहेली को जरा भी न बूझ सका।
मेरे हृदय में आशंकाएं पैदा हुई। अंधेरी रात है, घटायें उमड़ी हुई, नदी बाढ़ पर, हवा तेज, यहॉँ इस वक्त ठहरना ठीक नहीं। मगर मोहिनी! वह चाव-भरे भोलेपन की तस्वीर, उसी दिये की तरफ आँखें लगाये चुपचाप खड़ी थी और वह उदास दिया ज्यों हिलता मचलता चला जाता था, न जाने कहॉँ किस देश!
मगर थोड़ी देर के बाद वह दिया आँखों से ओझल हो गया। मोहिनी ने निराश स्वर में पूछा-गया! बुझ गया होगा?
और इसके पहले कि मैं जवाब दूँ वह उस डोंगी के पास चली गई, जिस पर बैठकर हम कभी-कभी नदी की सैरें किया करते थे, और प्यार से मेरे गले लिपटकर बोली-मैं उस दिये को देखने जाऊँगी कि वह कहॉँ जा रहा है, किस देश को।
यह कहते-कहते मोहिनी ने नाव की रस्सी खोल ली। जिस तरह पेड़ों की डालियॉँ तूफान के झोंकों से झंकोले खाती हैं उसी तरह यह डोंगी डॉँवाडोल हो रही थी। नदी का वह डरावना विस्तार, लहरों की वह भयानक छलॉँगें, पानी की वह गरजती हुई आवाज, इस खौफनाक अंधेरे में इस डोंगी का बेड़ा क्योंकर पार होगा! मेरा दिल बैठ गया। क्या उस अभागे की तलाश में यह किश्ती भी डूबेगी! मगर मोहिनी का दिल उस वक्त उसके बस में न था। उसी दिये की तरह उसका हृदय भी भावनाओं की विराट, लहरों भरी, गरजती हुई नदी में बहा जा रहा था। मतवाली घटायें झुकती चली आती थीं कि जैसे नदी के गले मिलेंगी और वह काली नदी यों उठती थी कि जैसे बदलों को छू लेंगी। डर के मारे आँखें मुंदी जाती थीं। हम तेजी के साथ उछलते, कगारों के गिरने की आवाजें सुनते, काले-काले पेड़ों का झूमना देखते चले जाते थे। आबादी पीछे छूट गई, देवताओं को बस्ती से भी आगे निकल गये। एकाएक मोहिनी चौंककर उठ खड़ी हुई और बोली- अभी है! अभी है! देखों वह जा रहा है।
मैंने आंख उठाकर देखा, वह दिया ज्यों का त्यों हिलता-मचलता चला जाता था।


उस दिये को देखते हम बहुत दूर निकल गए। मोहिनी ने यह राग अलापना शुरू किया:
मैं साजन से मिलन चली

कैसा तड़पा देने वाला गीत था और कैसी दर्दभरी रसीली आवाज। प्रेम और आंसुओं में डूबी हुई। मोहक गीत में कल्पनाओं को जगाने की बड़ी शक्ति होती है। वह मनुष्य को भौतिक संसार से उठाकर कल्पनालोक में पहुँचा देता है। मेरे मन की आंखों में उस वक्त नदी की पुरशोर लहरें, नदी किनारे की झूमती हुई डालियॉँ, सनसनाती हुई हवा सबने जैसे रूप धर लिया था और सब की सब तेजी से कदम उठाये चली जाती थीं, अपने साजन से मिलने के लिए। उत्कंठा और प्रेम से झूमती हुई युवती की धुंधली सपने-जैसी तस्वीर हवा में, लहरों में और पेड़ों के झुरमुट में चली जाती दिखाई देती और कहती थी- साजन से मिलने के लिए! इस गीत ने सारे दृश्य पर उत्कंठा का जादू फूंक दिया।
मैं साजन से मिलन चली
साजन बसत कौन सी नगरी मैं बौरी ना जानूँ
ना मोहे आस मिलन की उससे ऐसी प्रीत भली
मैं साजन से मिलन चली
मोहिनी खामोश हुई तो चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ था और उस सन्नाटे में एक बहुत मद्धिम, रसीला स्वप्निल-स्वर क्षितिज के उस पार से या नदी के नीचे से या हवा के झोंकों के साथ आता हुआ मन के कानों को सुनाई देता था।
मैं साजन से मिलन चली
मैं इस गीत से इतना प्रभावित हुआ कि जरा देर के लिए मुझे खयाल न रहा कि कहॉँ हूँ और कहॉँ जा रहा हूँ। दिल और दिमाग में वही राग गूँज रहा था। अचानक मोहिनी ने कहा-उस दिये को देखो। मैंने दिये की तरफ देखा। उसकी रोशनी मंद हो गई थी और आयु की पूंजी खत्म हो चली थी। आखिर वह एक बार जरा भभका और बुझ गया। जिस तरह पानी की बूँद नदी में गिरकर गायब हो जाती है, उसी तरह अंधेरे के फैलाव में उस दिये की हस्ती गायब हो गई ! मोहिनी ने धीमे से कहा, अब नहीं दिखाई देता! बुझ गया! यह कहकर उसने एक ठण्डी सांस ली। दर्द उमड़ आया। आँसुओं से गला फंस गया, जबान से सिर्फ इतना निकला, क्या यही उसकी आखिरी मंजिल थी? और आँखों से आँसू गिरने लगे।
मेरी आँखों के सामने से पर्दा-सा हट गया। मोहिनी की बेचैनी और उत्कंठा, अधीरता और उदासी का रहस्य समझ में आ गया और बरबस मेरी आंखों से भी आँसू की चंद बूंदें टपक पड़ीं। क्या उस शोर-भरे, खतरनाक, तूफानी सफर की यही आखिरी मंजिल थी?
दूसरे दिन मोहिनी उठी तो उसका चेहरा पीला था। उसे रात भर नींद नहीं आई थी। वह कवि स्वभाव की स्त्री थी। रात की इस घटना ने उसके दर्द-भरे भावुक हृदय पर बहुत असर पैदा किया था। हँसी उसके होंठों पर यूँ ही बहुत कम आती थी, हॉँ चेहरा खिला रहता थां आज से वह हँसमुखपन भी बिदा हो गया, हरदम चेहरे पर एक उदासी-सी छायी रहती और बातें ऐसी जिनसे हृदय छलनी होता था और रोना आता था। मैं उसके दिल को इन ख्यालों से दूर रखने के लिए कई बार हँसाने वाले किस्से लाया मगर उसने उन्हें खोलकर भी न देखा। हॉँ, जब मैं घर पर न होता तो वह कवि की रचनाएं देखा करती मगर इसलिए नहीं कि उनके पढ़ने से कोई आनन्द मिलता था बल्कि इसलिए कि उसे रोने के लिए खयाल मिल जाता था और वह कविताएँ जो उस जमाने में उसने लिखीं दिल को पिघला देने वाले दर्द-भरे गीत हैं। कौन ऐसा व्यक्ति है जो उन्हें पढ़कर अपने आँसू रोक लेगा। वह कभी-कभी अपनी कविताएँ मुझे सुनाती और जब मैं दर्द में डूबकर उनकी प्रशंसा करता तो मुझे उसकी ऑंखों में आत्मा के उल्लास का नशा दिखाई पड़ता। हँसी-दिल्लगी और रंगीनी मुमकिन है कुछ लोगों के दिलों पर असर पैदा कर सके मगर वह कौन-सा दिल है जो दर्द के भावों से पिघल न जाएगा।
एक रोज हम दोनों इसी बाग की सैर कर रहे थे। शाम का वक्त था और चैत का महीना। मोहिनी की तबियत आज खुश थी। बहुत दिनों के बाद आज उसके होंठों पर मुस्कराहट की झलक दिखाई दी थी। जब शाम हो गई और पूरनमासी का चॉँद गंगा की गोद से निकलकर ऊपर उठा तो हम इसी हौज के किनारे बैठ गए। यह मौलसिरियों की कतार ओर यह हौज मोहिनी की यादगार हैं। चॉँदनी में बिसात आयी और चौपड़ होने लगी। आज तबियत की ताजगी ने उसके रूप को चमका दिया था और उसकी मोहक चपलतायें मुझे मतवाला किये देती थीं। मैं कई बाजियॉँ खेला और हर बार हारा। हारने में जो मजा था वह जीतने में कहॉँ। हल्की-सी मस्ती में जो मजा है वह छकने और मतवाला होने में नहीं।

चॉँदनी खूब छिटकी हुई थी। एकाएक मोहिनी ने गंगा की तरफ देखा और मुझसे बोली, वह उस पार कैसी रोशनी नजर आ रही है? मैंने भी निगाह दौड़ाई, चिता की आग जल रही थी लेकिन मैंने टालकर कहा- सॉँझी खाना पका रहे हैं।
मोहिनी को विश्वास नहीं हुआ। उसके चेहरे पर एक उदास मुस्कराहट दिखाई दी और आँखें नम हो गईं। ऐसे दुख देने वाले दृश्य उसके भावुक और दर्दमंद दिल पर वही असर करते थे जो लू की लपट फूलों के साथ करती है।
थोड़ी देर तक वह मौन, निश्चला बैठी रही फिर शोकभरे स्वर में बोली-‘अपनी आखिरी मंजिल पर पहुँच गया!’

संदर्भ – प्रस्तुत कहानी हिन्दी साहित्य जगत के कथानायक प्रेमचंद की रचना है। अपने लेखन काल मे प्रेमचंद ने सैकड़ो कहानियां लिखी। उन्होने ने हिन्दी लेखन में यथार्थवाद की शुरुआत की। उनके रचनाओ में हने कई रंग देखने को मिलते है। मुख्य रूप से प्रेमचंद ने तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियो का सजीव वर्णन अपने साहित्यिक रचना के माध्यम से किया है। उनकी रचनाओ में हमे तत्कालीन दलित समाज, स्त्री दशा एवं समाज में व्याप्त विसंगतियाँ का दर्शन प्रत्यक्ष रूप से होता है।
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कप्तान साहब….प्रेमचंद

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जगत सिंह को स्कूल जान कुनैन खाने या मछली का तेल पीने से कम अप्रिय न था। वह सैलानी, आवारा, घुमक्कड़ युवक थां कभी अमरूद के बागों की ओर निकल जाता और अमरूदों के साथ माली की गालियॉँ बड़े शौक से खाता। कभी दरिया की सैर करता और मल्लाहों को डोंगियों में बैठकर उस पार के देहातों में निकल जाता। गालियॉँ खाने में उसे मजा आता था। गालियॉँ खाने का कोइ्र अवसर वह हाथ से न जाने देता। सवार के घोड़े के पीछे ताली बजाना, एक्को को पीछे से पकड़ कर अपनी ओर खींचना, बूढों की चाल की नकल करना, उसके मनोरंजन के विषय थे। आलसी काम तो नहीं करता; पर दुर्व्यसनों का दास होता है, और दुर्व्यसन धन के बिना पूरे नहीं होते। जगतसिंह को जब अवसर मिलता घर से रूपये उड़ा ले जात। नकद न मिले, तो बरतन और कपड़े उठा ले जाने में भी उसे संकोच न होता था। घर में शीशियॉँ और बोतलें थीं, वह सब उसने एक-एक करके गुदड़ी बाजार पहुँचा दी। पुराने दिनों की कितनी चीजें घर में पड़ी थीं, उसके मारे एक भी न बची। इस कला में ऐसा दक्ष ओर निपुण था कि उसकी चतुराई और पटुता पर आश्चर्य होता था। एक बार बाहर ही बाहर, केवल कार्निसों के सहारे अपने दो-मंजिला मकान की छत पर चढ़ गया और ऊपर ही से पीतल की एक बड़ी थाली लेकर उतर आया। घर वालें को आहट तक न मिली।
उसके पिता ठाकुर भक्तस सिहं अपने कस्बे के डाकखाने के मुंशी थे। अफसरों ने उन्हें शहर का डाकखाना बड़ी दौड़-धूप करने पर दिया था; किन्तु भक्तसिंह जिन इरादों से यहॉँ आये थे, उनमें से एक भी पूरा न हुआ। उलटी हानि यह हुई कि देहातो में जो भाजी-साग, उपले-ईधन मुफ्त मिल जाते थे, वे सब यहॉँ बंद हो गये। यहॉँ सबसे पुराना घराँव थां न किसी को दबा सकते थे, न सता सकते थे। इस दुरवस्था में जगतसिंह की हथलपकियॉँ बहुत अखरतीं। अन्होंने कितनी ही बार उसे बड़ी निर्दयता से पीटा। जगतसिंह भीमकाय होने पर भी चुपके में मार खा लिया करता थां अगर वह अपने पिता के हाथ पकड़ लेता, तो वह हल भी न सकते; पर जगतसिंह इतना सीनाजोर न था। हॉँ, मार-पीट, घुड़की-धमकी किसी का भी उस पर असर न होता था।
जगतसिंह ज्यों ही घर में कदम रखता; चारों ओर से कॉँव-कॉँव मच जाती, मॉँ दुर-दुर करके दौड़ती, बहने गालियॉँ देन लगती; मानो घर में कोई सॉँड़ घुस आया हो। घर ताले उसकी सूरत से जलते थे। इन तिरस्कारों ने उसे निर्लज्ज बना दिया थां कष्टों के ज्ञान से वह निर्द्वन्द्व-सा हो गया था। जहॉँ नींद आ जाती, वहीं पड़ रहता; जो कुछ मिल जात, वही खा लेता।
ज्यों-ज्यों घर वालें को उसकी चोर-कला के गुप्त साधनों का ज्ञान होता जाता था, वे उससे चौकन्ने होते जाते थे। यहॉँ तक कि एक बार पूरे महीने-भर तक उसकी दाल न गली। चरस वाले के कई रूपये ऊपर चढ़ गये। गॉँजे वाले ने धुऑंधार तकाजे करने शुरू किय। हलवाई कड़वी बातें सुनाने लगा। बेचारे जगत को निकलना मुश्किल हो गया। रात-दिन ताक-झॉँक में रहता; पर घात न मिलत थी। आखिर एक दिन बिल्ली के भागों छींका टूटा। भक्तसिंह दोपहर को डाकखानें से चले, जो एक बीमा-रजिस्ट्री जेब में डाल ली। कौन जाने कोई हरकारा या डाकिया शरारत कर जाय; किंतु घर आये तो लिफाफे को अचकन की जेब से निकालने की सुधि न रही। जगतसिंह तो ताक लगाये हुए था ही। पेसे के लोभ से जेब टटोली, तो लिफाफा मिल गया। उस पर कई आने के टिकट लगे थे। वह कई बार टिकट चुरा कर आधे दामों पर बेच चुका था। चट लिफाफा उड़ा दिया। यदि उसे मालूम होता कि उसमें नोट हें, तो कदाचित वह न छूता; लेकिन जब उसने लिफाफा फाड़ डाला और उसमें से नोट निक पड़े तो वह बड़े संकट में पड़ गया। वह फटा हुआ लिफाफा गला-फाड़ कर उसके दुष्कृत्य को धिक्कारने लगा। उसकी दशा उस शिकारी की-सी हो गयी, जो चिड़ियों का शिकार करने जाय और अनजान में किसी आदमी पर निशाना मार दे। उसके मन में पश्चाताप था, लज्जा थी, दु:ख था, पर उसे भूल का दंड सहने की शक्ति न थी। उसने नोट लिफाफे में रख दिये और बाहर चला गया।
गरमी के दिन थे। दोपहर को सारा घर सो रहा था; पर जगत की ऑंखें में नींद न थी। आज उसकी बुरी तरह कुंदी होगी— इसमें संदेह न था। उसका घर पर रहना ठीक नहीं, दस-पॉँच दिन के लिए उसे कहीं खिसक जाना चाहिए। तब तक लोगों का क्रोध शांत हो जाता। लेकिन कहीं दूर गये बिना काम न चलेगा। बस्ती में वह क्रोध दिन तक अज्ञातवास नहीं कर सकता। कोई न कोई जरूर ही उसका पता देगा ओर वह पकड़ लिया जायगा। दूर जाने केक लिए कुछ न कुछ खर्च तो पास होना ही चहिए। क्यों न वह लिफाफे में से एक नोट निकाल ले? यह तो मालूम ही हो जायगा कि उसी ने लिफाफा फाड़ा है, फिर एक नोट निकल लेने में क्या हानि है? दादा के पास रूपये तो हे ही, झक मार कर दे देंगे। यह सोचकर उसने दस रूपये का एक नोट उड़ा लिया; मगर उसी वक्त उसके मन में एक नयी कल्पना का प्रादुर्भाव हुआ। अगर ये सब रूपये लेकर किसी दूसरे शहर में कोई दूकान खोल ले, तो बड़ा मजा हो। फिर एक-एक पैसे के लिए उसे क्यों किसी की चोरी करनी पड़े! कुछ दिनों में वह बहुत-सा रूपया जमा करके घर आयेगा; तो लोग कितने चकित हो जायेंगे!
उसने लिफाफे को फिर निकाला। उसमें कुल दो सौ रूपए के नोट थे। दो सौ में दूध की दूकान खूब चल सकती है। आखिर मुरारी की दूकान में दो-चार कढ़ाव और दो-चार पीतल के थालों के सिवा और क्या है? लेकिन कितने ठाट से रहता हे! रूपयों की चरस उड़ा देता हे। एक-एक दॉँव पर दस-दस रूपए रख दतेा है, नफा न होता, तो वह ठाट कहॉँ से निभाता? इस आननद-कल्पना में वह इतना मग्न हुआ कि उसका मन उसके काबू से बाहर हो गया, जैसे प्रवाह में किसी के पॉँव उखड़ जायें ओर वह लहरों में बह जाय।
उसी दिन शाम को वह बम्बई चल दिया। दूसरे ही दिन मुंशी भक्तसिंह पर गबन का मुकदमा दायर हो गया।

2

बम्बई के किले के मैदान में बैंड़ बज रहा था और राजपूत रेजिमेंट के सजीले सुंदर जवान कवायद कर रहे थे, जिस प्रकार हवा बादलों को नए-नए रूप में बनाती और बिगाड़ती है, उसी भॉँति सेना नायक सैनिकों को नए-नए रूप में बनाती और बिगाड़ती है, उसी भॉँति सेना नायक सैनिकों को नए-नए रूप में बना बिगाड़ रहा था।
जब कवायद खतम हो गयी, तो एक छरहरे डील का युवक नायक के सामने आकर खड़ा हो गया। नायक ने पूछा—क्या नाम है? सैनिक ने फौजी सलाम करके कहा—जगतसिंह?
‘क्या चाहते हो।‘
‘फौज में भरती कर लीजिए।‘
‘मरने से तो नहीं डरते?’
‘बिलकुल नहीं—राजपूत हूँ।‘
‘बहुत कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी।‘
‘इसका भी डर नहीं।‘
‘अदन जाना पड़ेगा।‘
‘खुशी से जाऊँगा।‘
कप्तान ने देखा, बला का हाजिर-जवाब, मनचला, हिम्मत का धनी जवान है, तुरंत फौज में भरती कर लिया। तीसरे दिन रेजिमेंट अदन को रवाना हुआ। मगर ज्यों-ज्यों जहाज आगे चलता था, जगत का दिल पीछे रह जाता था। जब तक जमीन का किनारा नजर आता रहा, वह जहाज के डेक पर खड़ा अनुरक्त नेत्रों से उसे देखता रहा। जब वह भूमि-तट जल में विलीन हो गया तो उसने एक ठंडी सॉँस ली और मुँह ढॉँप कर रोने लगा। आज जीवन में पहली बर उसे प्रियजानों की याद आयी। वह छोटा-सा कस्बा, वह गॉँजे की दूकान, वह सैर-सपाटे, वह सुहूद-मित्रों के जमघट ऑंखों में फिरने लगे। कौन जाने, फिर कभी उनसे भेंट होगी या नहीं। एक बार वह इतना बेचैन हुआ कि जी में आय, पानी में कूद पड़े।

3

जगतसिंह को अदन में रहते तीन महीने गुजर गए। भॉँति-भॉँति की नवीनताओं ने कई दिन तक उसे मुग्ध किये रखा; लेकिनह पुराने संस्कार फिर जाग्रत होने लगे। अब कभी-कभी उसे स्नेहमयी माता की याद आने लगी, जो पिता के क्रोध, बहनों के धिक्कार और स्वजनों के तिरस्कार में भी उसकी रक्षा करती थी। उसे वह दिन याद आया, जब एक बार वह बीमार पड़ा था। उसके बचने की कोई आशा न थी, पर न तो पिता को उसकी कुछ चिन्ता थी, न बहनों को। केवल माता थी, जो रात की रात उसके सिरहाने बैठी अपनी मधुर, स्नेहमयी बातों से उसकी पीड़ा शांत करती रही थी। उन दिनों कितनी बार उसने उस देवी को नीव रात्रि में रोते देखा था। वह स्वयं रोगों से जीर्झ हो रही थी; लेकिन उसकी सेवा-शुश्रूषा में वह अपनी व्यथा को ऐसी भूल गयी थी, मानो उसे कोई कष्ट ही नहीं। क्या उसे माता के दर्शन फिर होंगे? वह इसी क्षोभ ओर नेराश्य में समुद्र-तट पर चला जाता और घण्टों अनंत जल-प्रवाह को देखा करता। कई दिनों से उसे घर पर एक पत्र भेजने की इच्छा हो रही थी, किंतु लज्जा और ग्लानिक कके कारण वह टालता जाता था। आखिर एक दिन उससे न रहा गया। उसने पत्र लिखा और अपने अपराधों के लिए क्षमा मॉँग। पत्र आदि से अन्त तक भक्ति से भरा हुआ थां अंत में उसने इन शब्दों में अपनी माता को आश्वासन दिया था—माता जी, मैने बड़े-बड़े उत्पात किय हें, आप लेग मुझसे तंग आ गयी थी, मै उन सारी भूलों के लिए सच्चे हृदय से लज्जित हूँ और आपको विश्वास दिलाता हूँ कि जीता रहा, तो कुछ न कुछ करके दिखाऊँगा। तब कदाचित आपको मुझे अपना पुत्र कहने में संकोच न होगा। मुझे आर्शीवाद दीजिए कि अपनी प्रतिज्ञा का पालन कर सकूँ।‘
यह पत्र लिखकर उसने डाकखाने में छोड़ा और उसी दिन से उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा; किंतु एक महीना गुजर गया और कोई जवाब न आया। आसका जी घबड़ाने लगा। जवाब क्यों नहीं आता—कहीं माता जी बीमार तो नहीं हैं? शायद दादा ने क्रोध-वश जवाब न लिखा होगा? कोई और विपत्ति तो नहीं आ पड़ी? कैम्प में एक वृक्ष के नीचे कुछ सिपाहियों ने शालिग्राम की एक मूर्ति रख छोड़ी थी। कुछ श्रद्धालू सैनिक रोज उस प्रतिमा पर जल चढ़ाया करते थे। जगतसिंह उनकी हँसी उड़ाया करता; पर आप वह विक्षिप्तों की भॉँति प्रतिमा के सम्मुख जाकर बड़ी देर तक मस्तक झुकाये बेठा रहा। वह इसी ध्यानावस्था में बैठा था कि किसी ने उसका नाम लेकर पुकार, यह दफ्तर का चपरासी था और उसके नाम की चिट्ठी लेकर आया थां जगतसिंह ने पत्र हाथ में लिया, तो उसकी सारी देह कॉँप उठी। ईश्वर की स्तुति करके उसने लिफाफा खोला ओर पत्र पढ़ा। लिखा था—‘तुम्हारे दादा को गबन के अभियोग में पॉँच वर्ष की सजा हो गई। तुम्हारी माता इस शोक में मरणासन्न है। छुट्टी मिले, तो घर चले आओ।‘
जगतसिंह ने उसी वक्त कप्तान के पास जाकर कह —‘हुजूर, मेरी मॉँ बीमार है, मुझे छुट्टी दे दीजिए।‘
कप्तान ने कठोर ऑंखों से देखकर कहा—अभी छुट्टी नहीं मिल सकती।
‘तो मेरा इस्तीफा ले लीजिए।‘
‘अभी इस्तीफा नहीं लिया जा सकता।‘
‘मै अब एक क्षण भी नहीं रह सकता।‘
‘रहना पड़ेगा। तुम लोगों को बहुत जल्द लाभ पर जाना पड़ेगा।‘
‘लड़ाई छिड़ गयी! आह, तब मैं घर नहीं जाऊँगा? हम लोग कब तक यहॉँ से जायेंगे?’
‘बहुत जल्द, दो ही चार दिनों में।‘

4

चार वर्ष बीत गए। कैप्टन जगतसिंह का-सा योद्धा उस रेजीमेंट में नहीं हैं। कठिन अवस्थाओं में उसका साहस और भी उत्तेजित हो जाता है। जिस महिम में सबकी हिम्मते जवाब दे जाती है, उसे सर करना उसी का काम है। हल्ले और धावे में वह सदैव सबसे आगे रहता है, उसकी त्योरियों पर कभी मैल नहीं आता; उसके साथ ही वह इतना विनम्र, इतना गंभीर, इतना प्रसन्नचित है कि सारे अफसर ओर मातहत उसकी बड़ाई करते हैं, उसका पुनर्जीतन-सा हो गया। उस पर अफसरों को इतना विश्वास है कि अब वे प्रत्येक विषय में उससे परामर्श करते हें। जिससे पूछिए, वही वीर जगतसिंह की विरूदावली सुना देगा—कैसे उसने जर्मनों की मेगजीन में आग लगायी, कैसे अपने कप्तान को मशीनगनों की मार से निकाला, कैसे अपने एक मातहत सिपाही को कंधे पर लेकर निल आया। ऐसा जान पड़ता है, उसे अपने प्राणों का मोह नही, मानो वह काल को खोजता फिरता हो!
लेकिन नित्य रात्रि के समय, जब जगतसिंह को अवकाश मिलता है, वह अपनी छोलदारी में अकेले बैठकर घरवालों की याद कर लिया करता है—दो-चार ऑंसू की बँदे अवश्य गिरा देता हे। वह प्रतिमास अपने वेतन का बड़ा भाग घर भेज देता है, और ऐसा कोई सप्ताह नहीं जाता जब कि वह माता को पत्र न लिखता हो। सबसे बड़ी चिंता उसे अपने पिता की है, जो आज उसी के दुष्कर्मो के कारण कारावास की यातना झेल रहे हैं। हाय! वह कौन दिन होगा, जब कि वह उनके चरणों पर सिर रखकर अपना अपराध क्षमा करायेगा, और वह उसके सिर पर हाथ रखकर आर्शीवाद देंगे?

5
सवा चार वर्ष बीत गए। संध्या का समय है। नैनी जेल के द्वार पर भीड़ लगी हुई है। कितने ही कैदियों की मियाद पूरी हो गयी है। उन्हें लिवा जाने के लिए उनके घरवाले आये हुए है; किन्तु बूढ़ा भक्तसिंह अपनी अँधेरी कोठरी में सिर झुकाये उदास बैठा हुआ है। उसकी कमर झुक कर कमान हो गयी है। देह अस्थि-पंजर-मात्र रह गयी हे। ऐसा जान पड़ता हें, किसी चतुर शिल्पी ने एक अकाल-पीड़ित मनुष्य की मूर्ति बनाकर रख दी है। उसकी भी मीयाद पूरी हो गयी है; लेकिन उसके घर से कोई नहीं आया। आये कौन? आने वाल था ही कौन?
एक बूढ़ किन्तु हृष्ट-पुष्ट कैदी ने आकर उसक कंधा हिलाया और बोला—कहो भगत, कोई घर से आया?
भक्तसिंह ने कंपित कंठ-स्वर से कहा—घर पर है ही कौन?
‘घर तो चलोगे ही?’
‘मेरे घर कहॉँ है?’
‘तो क्या यही पड़े रहोंगे?’
‘अगर ये लोग निकाल न देंगे, तो यहीं पड़ा रहूँगा।‘
आज चार साल के बाद भगतसिंह को अपने प्रताड़ित, निर्वासित पुत्र की याद आ रही थी। जिसके कारण जीतन का सर्वनाश हो गया; आबरू मिट गयी; घर बरबाद हो गया, उसकी स्मृति भी असहय थी; किन्तु आज नैराश्य ओर दु:ख के अथाह सागर में डूबते हुए उन्होंने उसी तिनके का सहार लियां न-जाने उस बेचारे की क्या दख्शा हुई। लाख बुरा है, तो भी अपना लड़का हे। खानदान की निशानी तो हे। मरूँगा तो चार ऑंसू तो बहायेगा; दो चिल्लू पानी तो देगा। हाय! मैने उसके साथ कभी प्रेम का व्यवहार नहीं कियां जरा भी शरारत करता, तो यमदूत की भॉँति उसकी गर्दन पर सवार हो जाता। एक बार रसोई में बिना पैर धोये चले जाने के दंड में मेने उसे उलटा लटका दिया था। कितनी बार केवल जोर से बोलने पर मैंने उस वमाचे लगाये थे। पुत्र-सा रत्न पाकर मैंने उसका आदर न कियां उसी का दंड है। जहॉँ प्रेम का बन्धन शिथिल हो, वहॉँ परिवार की रक्षा कैसे हो सकती है?

6

सबेरा हुआ। आशा की सूर्य निकला। आज उसकी रश्मियॉँ कितनी कोमल और मधुर थीं, वायु कितनी सुखद, आकाश कितना मनोहर, वृक्ष कितने हरे-भरे, पक्षियों का कलरव कितना मीठा! सारी प्रकृति आश के रंग में रंगी हुई थी; पर भक्तसिंह के लिए चारों ओर धरे अंधकार था।
जेल का अफसर आया। कैदी एक पंक्ति में खड़े हुए। अफसर एक-एक का नाम लेकर रिहाई का परवाना देने लगा। कैदियों के चेहरे आशा से प्रफुलित थे। जिसका नाम आता, वह खुश-खुश अफसर के पास जात, परवाना लेता, झुककर सलाम करता और तब अपने विपत्तिकाल के संगियों से गले मिलकर बाहर निकल जाता। उसके घरवाले दौड़कर उससे लिपट जाते। कोई पैसे लुटा रहा था, कहीं मिठाइयॉँ बॉँटी जा रही थीं, कहीं जेल के कर्मचारियों को इनाम दिया जा रहा था। आज नरक के पुतले विनम्रता के देवता बने हुए थे।
अन्त में भक्तसिंह का नाम आया। वह सिर झुकाये आहिस्ता-आहिस्ता जेलर के पास गये और उदासीन भाव से परवाना लेकर जेल के द्वार की ओर चले, मानो सामने कोई समुद्र लहरें मार रहा है। द्वार से बाहर निकल कर वह जमीन पर बैठ गये। कहॉँ जायँ?
सहसा उन्होंने एक सैनिक अफसर को घोड़े पर सवार, जेल की ओर आते देखा। उसकी देह पर खाकी वरदी थी, सिर पर कारचोबी साफा। अजीब शान से घोड़े पर बैठा हुआ था। उसके पीछे-पीछे एक फिटन आ रही थी। जेल के सिपाहियों ने अफसर को देखते ही बन्दूकें सँभाली और लाइन में खड़े हाकर सलाम किया।
भक्तससिंह ने मन में कहा—एक भाग्यवान वह है, जिसके लिए फिटन आ रही है; ओर एक अभागा मै हूँ, जिसका कहीं ठिकाना नहीं।
फौजी अफसर ने इधर-उधर देखा और घोड़े से उतर कर सीधे भक्तसिंह के सामने आकर खड़ा हो गया।
भक्तसिंह ने उसे ध्यान से देखा और तब चौंककर उठ खड़े हुए और बोले—अरे! बेटा जगतसिंह!
जगतसिंह रोता हुआ उनके पैरों पर गिर पड़ा।

 

 

  संदर्भ – प्रस्तुत कहानी हिन्दी साहित्य जगत के कथानायक प्रेमचंद की रचना है। अपने लेखन काल मे प्रेमचंद ने सैकड़ो कहानियां लिखी। उन्होने ने हिन्दी लेखन में यथार्थवाद की शुरुआत की। उनके रचनाओ में हने कई रंग देखने को मिलते है। मुख्य रूप से प्रेमचंद ने तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियो का सजीव वर्णन अपने साहित्यिक रचना के माध्यम से किया है। उनकी रचनाओ में हमे तत्कालीन दलित समाज, स्त्री दशा एवं समाज में व्याप्त विसंगतियाँ का दर्शन प्रत्यक्ष रूप से होता है।
प्रेमचंद के संक्षिप्त जीवन परिचय जानने के लिए यहाँ क्लिक करे,

प्रेमचंद, एक जीवन परिचय(biography of premchand in hindi)

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प्रेमचंद महानतम भारतीय लेखकों में से एक हैं। इन्हे हिन्दी साहित्य का कथानायक और उपन्यास सम्राट भी कहा जाता है। प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को  वाराणसी  केनिकट लमही गाँव में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी था तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था। उनके पिता  लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद  का मूल नाम धनपत राय श्रीवास्तव था। पढ़ने का शौक उन्‍हें बचपन से ही लग गया। उनकी शिक्षा का आरंभ उर्दू, फारसी सेहुआ।  अपने पढ़ने के शौक़ के चलते साहित्य मे उनकी रुचि बचपन से ही हो गई। बचपन में ही उन्होने ने देशी विदेशी कई साहित्य की किताबें पढ़ डाली।

Premchand 1

सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में पिता का देहान्त हो जाने के कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उस समय के प्रथा के अनुसार उनकी शादी पंद्रह वर्ष की उम्र में ही हो गया जो की सफल नहीं रहा। बाद में उन्होने दूसरा विवाह शिवरानी देवी से किया जो की बाल विधवा थी।

पिता की असमय देहांत के कारण घर परिवार की ज़िम्मेदारी भी बहुत ही कम उम्र मे उनके ऊपर आ गई। अपने पिता के देहांत के बाद भी उन्होने अपनी शिक्षा जारी रखा एवं मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद जीवनयापन के लिए एक स्कूल में अध्यापक की नौकरी कर लिया। अध्यापन का कार्य करते हुए ही उन्होने ब० ए० पास किया एवं शिक्षा विभाग में इंस्पेक्टर के पद पर नियुक्त हुए। बाद में गांधीजी से प्रेरित होकर उन्होने नौकरी से इस्तीफा  दे दिया और स्वयं को देशसेवा एवं लेखन कार्य में पूरी तरह समर्पित कर दिया।

आधुनिक हिन्दी साहित्य पर प्रेमचंद का बड़ा ही व्यापक प्रभाव है। उनका साहित्यिक जीवन 1901 से ही शुरू हो गया था। पहले पहल वे नाबाब राय के नाम से लिखते थे। 1908 मे प्रेमचंद का पहला कहानी संग्रह सोज़े-वतन अर्थात राष्ट्र का विलाप  नाम से प्रकाशित हुआ। देशभक्ति की भावना से ओतप्रोत होने के कारण इस पर अंग्रेज़ी सरकार ने रोक लगा दी और इसके लेखक को भविष्‍य में इस तरह का लेखन न करने की चेतावनी दी। सोजे-वतन की सभी प्रतियाँ जब्त कर जला दी गईं। इस घटना के बाद प्रेमचंद के मित्र एवं ज़माना पत्रिका के संपादक  मुंशी दयानारायण निगम  ने उन्हे प्रेमचंद के नाम से लिखने की सलाह दिया। इसके बाद धनपत राय, प्रेमचंद  के नाम से लिखने लगे। प्रेमचंद के नाम से उनकी पहली कहानी ज़माना पत्रिका के दिसम्बर 1910 मे प्रकाशित हुई। इस कहानी का नाम बड़े घर की बेटी  था। अपने लेखन काल मे प्रेमचंद ने सैकड़ो कहानियां लिखी। उन्होने ने हिन्दी लेखन में यथार्थवाद की शुरुआत की। उनके रचनाओ में  हमे कई रंग देखने को मिलते है। मुख्य रूप से प्रेमचंद ने तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियो का सजीव वर्णन अपने साहित्यिक रचना के माध्यम से किया है। उनकी रचनाओ में हमे तत्कालीन दलित समाज, स्त्री दशा एवं समाज में व्याप्त विसंगतियाँ का दर्शन प्रत्यक्ष रूप से होता है।

महात्मा गांधी के आह्वान पर उन्होने 1921 में अपनी नौकरी छोड़ दी। नौकरी छोड़ने के बाद कुछ दिनों तक उन्होने ने मर्यादा नामक पत्रिका में सम्पादन का कार्य किया।उसके बाद छह साल तक माधुरी नामक पत्रिका में संपादन का काम किया। 1930 से 1932 के बीच उन्होने अपना खुद का मासिक पत्रिका हंस  एवं साप्ताहिक पत्रिका जागरण  निकलना शुरू किया। कुछ दिनों तक उन्होने ने मुंबई मे फिल्म के लिए कथा भी लिखी। उनकी कहानी पर बनी फिल्म का नाम मज़दूर था, यह 1934 में प्रदर्शित हुई। परंतु फिल्मी दुनिया उन्हे रास नहीं आयी और वह अपने कांट्रैक्ट को पूरा किए बिना ही बनारस वापस लौट आए। प्रेमचंद ने मूल रूप से हिन्दी मे 1915 से कहानियां लिखना शुरू किया। उनकी पहली हिन्दी कहानी 1925 में  सरस्वती पत्रिका  में सौत  नाम से प्रकाशित हुई। 1918 ई से उन्होने उपन्यास लिखना शुरू किया। उनके पहले उपन्यास का नाम सेवासदन  है। प्रेमचंद ने लगभग बारह उपन्यास तीन सौ के करीब कहानियाँ कई लेख एवं नाटक लिखे है।

प्रेमचंद द्वारा रचित कहानियों में  पूस की रात, ईदगाह,बड़े भाई साहब, अलगोझा,गुल्ली डंडा, पंच परमेश्‍वरदो बैलों की कथा, बूढी काकी, मंत्र, कफन इत्यादि प्रमुख कहानियाँ है।

प्रेमचंद द्वारा रचित उपन्यासों में सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला, कायाकल्प, गबन, कर्मभूमि, गोदान इत्यादि प्रमुख है। उनक अंतिम उपन्यास मंगलसूत्र  है जो अपूर्ण है इसी उपन्यास के रचना के दौरान 8 October 1936 को लंबी बीमारी के कारण उनका निधन हो गया। बाद में उनके पुत्र अमृत राय ने यह उपन्यास पूरा किया।

प्रेमचंद ने संग्राम‘ ‘कर्बलाऔर प्रेम की वेदी‘ नामक नाटकों की रचना किया है। मरने के बाद प्रेमचंद की कहानियाँ मानसरोवर  नाम से आठ भागो मे प्रकाशित हुई है। हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में प्रेमचंद का योगदान अतुलनीय है। बंगाल के प्रमुख उपन्यासकार शरत चंद्रचट्टोपाध्याय ने उन्हें उपन्यास सम्राट कहकर नए उपनाम से संबोधित किया था। उनके बेटे अमृत राय ने कलम का सिपाही  नाम से उनकी जीवनी लिखी है जो उनके जीवन पर विस्तृत प्रकाश डालती है।

कौन कहता है कि कोई अमर नहीं हो सकता, जबतक यह दुनिया है प्रेमचंद अपने रचना के माध्यम सदैव सभी के दिलों से अमर रहेंगे।  प्रस्तुत लेख में मैंने कथानायक प्रेमचंद के जीवन (biography of premchand in hindi)  को संक्षिप्त रूप से वर्णन करने का प्रयास किया है।

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         रबीन्द्रनाथ टैगोर, एक जीवन परिचय

PDF फाइल को कैसे एडिट करे ?….

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PDFफाइलक्याहै?

PDF फाइल का निर्माण Adove कंपनी ने किया है। इसका निर्माण 1993 ई. में किया गया था। PDF, Portable Document Format  का संछिप्त रूप है।

अपने आकारमेंछोटाहोने एवं Read Only फाइल  (जिससे यह आसानी से Edit नहीं होता है।)  होने के कारण यह फाइल Format बहुत ही लोकप्रिय है ।

PDFफाइलकैसेएडिटकरे?

पीडीऍफ़ फाइल को निम्न कई प्रकार से एडिट किया जा सकता है….

  • ऑफलाइन
  • ऑनलाइन
  • Source file को Change करके
  • फाइल Format Change करके

1.ऑफलाइन (Offline)

इस प्रकार में मुख्य रूप से Software के प्रयोग से PDF फाइल को एडिट किया जाता है।

ये Software दो प्रकार के हो सकते है।

  1. 1.   Paid Software

इनमे मुख्य रूप से

  • Adobe Acrobat
  • Nitro PDF , इत्यादि आते है. जिनको खरीद के प्रयोग किया जा सकता है ।
  1. 2.  Free Software.

पीडीऍफ़ फाइल को एडिट करने के लिए कई प्रकार के free सॉफ्टवेर भी उपलब्ध है जिन्हें Internet द्वारा आसानी से Download एवं Install किया जा सकता है।

ऐसे Software में ..

PDF 24 Creator डाउनलोड करने के लिए यहाँ  क्लिक करे।

 

PDFILL PDF Editor डाउनलोड करने के लिए यहाँ  क्लिक करे।

 

 

Free PDF Editor डाउनलोड करने के लिए यहाँ  क्लिक करे।

 

 

Apache Open office डाउनलोड करने के लिए यहाँ  क्लिक करे।

Apache Open office के द्वारा हम पीडीऍफ़ फाइल के Text, Image एवं ग्राफिक्स इत्यादि को आसानी से Edit कर सकते है।

PDF एडिट करने के लिए इसका प्रयोग PDF Import Extention के साथ किया जाता है।

PDF Import Extention डाउनलोड करने के लिए यहाँ  क्लिक करे।

यह एक Advanced PDF Editor है।

 

2.ऑनलाइन (Online)

पीडीऍफ़ फाइल को ऑनलाइन भी Edit किया जा सकता है .कई Website PDF फाइल को सीधे अपने Website पर Uplode कर के उन्हें Edit करने की सुविधा प्रदान करती है।

इस प्रकार की वेबसाइट में pdfescape.com का नाम प्रमुख है जहा आप अपने PDF फाइल को सीधे Uplode एवं Edit कर सकते है।

 

3.Source file को Change करके

PDF फाइल के Source फाइल में बदलाव करके भी PDF फाइल को Edit किया जा सकता है है इसके लिए भी कई प्रकार के Software उपलब्ध है जिन्हें प्रयोग करके PDF फाइल के Source फाइल में बदलाव किया जा सकता है।

 

4.फाइल Format Change करके

PDF फाइल को  MS Word अथवा किसी अन्य आसानी से Edit होने वाले फॉर्मेट में बदल कर भी आप पीडीऍफ़ फाइल को Edit कर सकते है। इसमें फाइल को Edit करने के बाद उसे फिर से PDF में Change कर के प्रयोग किया जा सकता है।

इस सुविधा का प्रयोग ऑनलाइन तथा ऑफलाइन दोनों प्रकार से किया जा सकता है।

इत्यादि का प्रयोग कर के पीडीऍफ़ फाइल को ऑनलाइन आसानी से MS Word में Change किया जा सकता है।

कुछ उपयोगी Microsoft Word Shortcut…

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SHORTCUT

DESCRIPTION

Ctrl + A Select all (including text, graphics).
Ctrl + B Bold.
Ctrl + I Italic.
Ctrl + U Underline.
Ctrl + C Copy.
Ctrl + V Paste.
Ctrl + X Cut.
Ctrl + Z Undo.
Ctrl + Y Redo.
Ctrl + F Find.
Ctrl + M Indent.
Ctrl + L Left align.
Ctrl + E Center align.
Ctrl + R Right align.
Ctrl + K Insert link.
Ctrl + P Open the print dialog.
Ctrl + Del Deletes word to the right of cursor.
Ctrl + End Moves cursor to the end of document.
Ctrl + Spacebar Reset highlighted text to the default font.
Ctrl + Home Moves cursor to the beginning of document.
Ctrl + Backspace Deletes word to the left of cursor.
Ctrl + Shift + F Change font.
Ctrl + 1 Single-space.
Ctrl + 2 Double-space.
Ctrl + 5 1.5-line.
Ctrl + F1 Task Pane.
Ctrl + F2 Print preview.
F1 Help.
F4 Repeat the last action
F5 Go to .
F7 Spelling and grammar.
F12 Save as.
F8 then (left arrow) Increase selection to the left by one character
F8 then (right arrow) Increase selection to the right by one character
Ctrl + Alt + 1 Format text: heading 1.
Ctrl + Alt + 2 Format text: heading 2.
Ctrl + Alt + 3 Format text: heading 3.
Ctrl + (left arrow) Moves one word to the left.
Ctrl + (right arrow) Moves one word to the right.
Ctrl + (up arrow) Moves cursor to the beginning of the paragraph.
Ctrl + (down arrow) Moves cursor to the end of the paragraph.
Ctrl + Insert Copy.
Shift + Insert Paste.
Alt + Ctrl + F2 New document.
Shift + F3 Cycle between capitalized formats
Ctrl + Shift + (left arrow) Select from current position to the beginning of the word.
Ctrl + Shift + (right arrow) Select from current position to the end of the word.
Ctrl + Shift + (up arrow) Select from current position to the beginning of the document.
Ctrl + Shift + (down arrow) Select from current position to the end of the document.
Ctrl + Shift + Page Up Select from current position to the beginning of the window.
Ctrl + Shift + Page Down Select from current position to the end of the window.
Shift + Page Up One screen page up.
Shift + Page Down One screen page down.
Shift + End Select from current position to the end of the line.
Shift + Home Select from current position to the beginning of the line.
Shift + F7 Thesaurus check selected text.
Shift + F12 Save.
Alt + Shift + D Insert the current date.
Alt + Shift + T Insert the current time.
Ctrl + Shift + F12 Print.

कुछ उपयोगी MS Excel shortcut

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Microsoft ऑफिस का प्रयोग प्रत्येक कंप्यूटर User लगभग रोज ही करता है. Shortcut के प्रयोग से  माइक्रोसाफ्ट ऑफिस  में काम समय की बचत के साथ आसानी से किया जा सकता है.

यहाँ कुछ उपयोगी MS Excel Shortcut दिए जा रहे है . सुविधा के लिए ये Shortcut इंग्लिश में है…..

Shortcut Description
Ctrl + A Select all.
Ctrl + B Bold.
Ctrl + C Copy.
Ctrl + F Find (same as Shift + F5).
Ctrl + G Go To.
Ctrl + H Replace.
Ctrl + I Italic.
Ctrl + K Insert link.
Ctrl + V Paste.
Ctrl + Z Undo.
Ctrl + Y Redo.
Ctrl + X Cut.
Ctrl + N New Workbook.
Ctrl + O Open Workbook.
Ctrl + P Print dialog.
Ctrl + S Save.
Ctrl + U Underline.
Ctrl + 5 Strikethrough text.
Shift + F1 Activate Help on Item.
Shift + F2 Insert Comments
Shift + F3 Insert Function.
Ctrl + F3 Define Name.
Ctrl + F4 Exit Excel.
Ctrl + F6 Switch between open workbooks.
Ctrl + F9 Minimize current window.
Ctrl + F10 Maximize current window.
Ctrl + Page down Move to next worksheet.
Ctrl + Page up Move to previous worksheet.
Ctrl + Shift + ! Number Format: Commas.
Ctrl + Shift + $ Number Format: Currency
Ctrl + Shift + # Number Format: Date
Ctrl + Shift + @ Number Format: Time.
Ctrl + Shift + % Number Format: Percentage
Ctrl + Shift + ^ Number Format: Scientific.
Ctrl + Shift + ; Enter the current time.
Ctrl + ; Enter the current date.
Ctrl + Shift + ^ Number Format: Scientific.
Ctrl + Space Select entire column.
F2 Edit the selected cell.
F5 Go to a specific cell.
F7 Spell check selected text and/or document.
F11 Create chart.
Shift + Space Select entire row.
Ctrl + (Arrow key) Move to next section.

 

 

Permanent Deleted File को पुनः प्राप्त करना …….

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कभी – कभी फाइल को कंप्यूटर से परमानेंट डिलीट (Permanent Delete) करने के बाद यह लगता है की यह एक गलती थी और वह file बहुत ही महत्वपूर्ण था।

ऐसे में फाइल को Recover कैसे किया जाय?…..

इस स्थिति में हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि जब कोई फाइल कंप्यूटर से Permanent Delete किया जाता है तो यह तुरंत पूरी तरह नष्ट नहीं होता है। कंप्यूटर के Hard Drive में कुछ स्पेस इन Deleted Files के लिए बचा होता है। यह तबतक बचा होता है जबतक कि कोई अन्य फाइल का उस स्पेस पर Overwrite न हो।

इस स्थिति में उस Deleted फाइल को पुनः प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए File Recovery सॉफ्टवेयर कि आवश्यकता होती है , जिसे गूगल सर्च पर आसानी से सर्च करके डाउनलोड किया जा सकता है।
इसके लिए आप निम्न File Recovery सॉफ्टवेयर का प्रयोग कर सकते है….

 

इन सॉफ्टवेयर को डाउनलोड और अपने कंप्यूटर में Install करके इनकी मदद से Deleted Files को Scan, Recover और Fix किया जा सकता है।