प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना ( Pradhan Mantri Garib Kalyan Yojna) की शुरुआत अप्रैल 2015 में भारत सरकार द्वारा गरीबों के कल्याण हेतु किया गया था। इस योजना का उद्देश्य गरीबों के कल्याण के लिए, भारत सरकार द्वारा गरीबों के हित एवं कल्याण से सम्बंधित पूर्ववर्ती योजनाओं को सही प्रकार से लागु करना है। इसके लिए भारत सरकार ने एक कार्यशाला का भी आयोजन किया था जिससे लोगो को इस बारे में जागरूक किया जा सके। इसी क्रम में नवम्बर 2016 में भारत सरकार द्वारा इनकम टैक्स में संसोधन किया गया है जिससे की गरीबों से सम्बंधित कल्याणकारी योजनाओ को सुचारू रूप से प्रभावी करने हेतु अतरिक्त धन का प्रबंध किया जा सके।
प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना का लाभ कौन उठा सकता है?
यह योजना गरीबों के कल्याण हेतु है। अत: कोई भी भारतीय नागरिक जो गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करता है इस योजना का लाभ उठा सकता है। इसके लिए अगर वह ग्रामीण क्षेत्र का है तो ग्राम-पंचायत तथा शहरी क्षेत्र का है तो नगरपलिका से संपर्क कर विस्तृत जानकारी ले सकता है।
प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना ( Pradhan Mantri Garib Kalyan Yojna) का विस्तार
भारत सरकार के वित्त मंत्री अरुण जेटली से 29 नवम्बर 2016 को इनकम टैक्स एक्ट में संशोधन के लिये एक विधेयक प्रस्तावित किया ।जिसके द्वारा 30 दिसम्बर 2016 तक जो व्यक्ति जिसके पास भी कालाधन या अवैधानिक तरीके से कमाई गयी सम्पति है । जिस पे इनकम टेक्स नहीं दिया गया है अगर अपने धन का स्वं खुलासा करता है तो उस धन पे 49.9 % (लगभग 50%) का टेक्स लगेगा । बाकि की 25% धनराशी को 4 वर्षो के लिये प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना में जमा करा दिया जायेगा । इसके साथ ही साथ उस धनराशी पर कोई ब्याज नहीं दिया जायेगा । आगामी 4 वर्षो तक यह धनराशी फ्रीज़ अवस्था में रहेगी| यहाँ फ्रीज़ अवस्था से तात्पर्य ये है की वह व्यक्ति उस धन का उपयोग नहीं कर पायेगा । 4 वर्षो के बाद वह धन राशी उस व्यक्ति की वापस दे दि जाएगी| बाकि की 25% धनराशी का उपयोग वह व्यक्ति तत्काल कर सकता है।
एक उदहारण के माध्यम से हम इसे आसानी से समझ सकते है। मान लीजिये की किसी व्यक्तिके पास कालाधन के रूप में 100 रूपये है-
इस 100 रूपये पर 49.9 %( लगभग 50% का टेक्स लग जायेगा i.e. 100 का 50% = 50 रूपये टैक्स में चला जायेगा
उस 100 रूपये का 25% , प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना में चला जायेगा (100 का25 % = 25 रूपये)
और 100 रूपये का बाकि बचा हिस्सा 25 रूपये उस व्यक्ति को तुरंत वापस दे दिया जायेगा
साथ ही साथ प्रस्तावित संशोधनों में यह भी प्रावधान है कि अगर 30 दिसम्बर 2016 तक किसी व्यक्ति अपना काला धन घोषित नहीं किया है और इनकम टैक्स विभाग को उस धन का पता लग जाता है तो उस स्थिति में उस सम्पूर्णराशी का 85% टैक्स और जुर्माने के रूप में वसूला जायेगा।
किसी योजना को बनाने और लागु करने के लिये बहुत अधिक मात्रा में धन की आवश्कता होती है। खास तौर पर गरीबो के लिये बनायीं गयी योजना में । इस योजना में एकत्रित धन का उपयोग सरकार भारत के गरीबो के लिये नयी योजनायें बनाने में करेगी जिससे देश की गरीब जनता के जीवन स्तर को उपर उठाने में मदद मिलेगी, साथ ही साथ उनके लिये भोजन , स्वच्छ पानी ,रहने के स्थान और स्वास्थ्य संबधित आवश्कता की पूर्ति की जा सकती है। ये भारत सरकार का एक अच्छा प्रयास कहा जा सकता है।
रामायण कथा का एक अंश
जिससे हमे *सीख* मिलती है *”एहसास”* की…
*श्री राम, लक्ष्मण एवम् सीता’ मैया* चित्रकूट पर्वत की ओर जा रहे थे,
राह बहुत *पथरीली और कंटीली* थी !
की यकायक *श्री राम* के चरणों मे *कांटा* चुभ गया !
श्रीराम *रूष्ट या क्रोधित* नहीं हुए, बल्कि हाथ जोड़कर धरती माता से *अनुरोध* करने लगे !
बोले- “माँ, मेरी एक *विनम्र प्रार्थना* है आपसे, क्या आप *स्वीकार* करेंगी ?”
प्रभु बोले, “माँ, मेरी बस यही विनती है कि जब भरत मेरी खोज मे इस पथ से गुज़रे, तो आप *नरम* हो जाना !
कुछ पल के लिए अपने आँचल के ये पत्थर और कांटे छुपा लेना !
मुझे कांटा चुभा सो चुभा, पर मेरे भरत के पाँव मे *आघात* मत करना”
श्री राम को यूँ व्यग्र देखकर धरा दंग रह गई !
पूछा- “भगवन, धृष्टता क्षमा हो ! पर क्या भरत आपसे अधिक सुकुमार है ?
जब आप इतनी सहजता से सब सहन कर गए, तो क्या कुमार भरत सहन नही कर पाँएगें ?
फिर उनको लेकर आपके चित मे ऐसी *व्याकुलता* क्यों ?”
*श्री राम* बोले- “नही…नही माते, आप मेरे कहने का अभिप्राय नही समझीं ! भरत को यदि कांटा चुभा, तो वह उसके पाँव को नही, उसके *हृदय* को विदीर्ण कर देगा !”
*”हृदय विदीर्ण* !! ऐसा क्यों प्रभु ?”,
*धरती माँ* जिज्ञासा भरे स्वर में बोलीं !
“अपनी पीड़ा से नहीं माँ, बल्कि यह सोचकर कि…इसी *कंटीली राह* से मेरे भैया राम गुज़रे होंगे और ये *शूल* उनके पगों मे भी चुभे होंगे !
मैया, मेरा भरत कल्पना मे भी मेरी *पीड़ा* सहन नहीं कर सकता, इसलिए उसकी उपस्थिति मे आप *कमल पंखुड़ियों सी कोमल* बन जाना..!!”
अर्थात
*रिश्ते* अंदरूनी एहसास, आत्मीय अनुभूति के दम पर ही टिकते हैं ।
जहाँ *गहरी आत्मीयता* नही, वो रिश्ता शायद नही परंतु *दिखावा* हो सकता है ।
इसीलिए कहा गया है कि…
*रिश्ते*खून से नहीं, *परिवार* से नही,
*मित्रता* से नही, *व्यवहार* से नही,
बल्कि…
सिर्फ और सिर्फ *आत्मीय “एहसास”* से ही बनते और *निर्वहन* किए जाते हैं।
जहाँ *एहसास* ही नहीं,
*आत्मीयता* ही नहीं ..
वहाँ *अपनापन* कहाँ से आएगा l
भारत सरकार ने एक महत्पूर्ण योजना “प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजाना” की शुरुआत 1 मई ,2016 को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के माल्देपुर से हुई । यह उज्जवला योजना ग्रामीण इलाके में ,गरीबी रेखा के निचे गुजर -बसर करने वाले गरीब परिवारों के लिए रियाती मूल्य पर एलपीजी कनेक्शन तथा उसकी आपूर्ति करने के उद्देश्य से की गयी हैं।
Pradhan Mantra ujjwala-yojana
आज 21 वी शताब्दी में भी ग्रामीण इलाको में लकड़ी या गोबर के उपलो (गोइंठा ) पर खाना बनाने से बहुत ज़्यादा मात्रा धुंआ निकलता है। धुंए के माध्यम से निकलने वाली हानिकारक गैसे, अनेक प्रकार के नुकसान पंहुचाती हैं। जो महिला खाना बनाती है उसके सांस लेने के माध्यम से उसके फेफड़ो तथा अन्य अंगो को नुकसान पंहुचाती हैं। जिससे कई अन्य बीमारियाँ होने की भी सम्भावना बनी रहती है। यह वातावरण को दूषित करके,हमारे वातावरण की रक्षा करने वाली ओजोन पर्त को नुकसान पंहुचाती हैं। इस प्रकार यह उज्ज्वला योजाना महिलाओ के स्वास्थ्य सुधार तथा वातावरण सुधार कि दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।
इस योजाना की पंच लाइन है ” स्वच्छ ईधन, बेहतर जीवन “। इस सामाजिक कल्याण योजना उद्देश्य के अन्तर्गत, वर्ष 2019 तक 5 करोड़ कनेक्शन गरीबी रेखा से नीचे जीवन यापन करने वाले गरीब परिवार को धुंआ रहित जीवन देने की है। इस परियोजना पर भारत सरकार लगभग 8 हजार करोड़ खर्च करेगी।
इस योजना के सम्बंधित कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां इस प्रकार हैं.
योजना का उद्देश्य
उज्जवला योजना के अनुसार एलपीजी कनेक्शन परिवार की महिला सदस्य के नाम से दिया जायेगा, जो महिला सशक्तिकरण को मजबूती प्रदान करता है ।
ग्रामीण महिलाओं को एलपीजी कनेक्शन देकर उनको धुंये और हानिकारक गैसों से मुक्ति देना ।
तथा धुँए और हानिकारक गैसों से होने वाली जानलेवा बीमारियों से रोकना ।
योजना का बजट एवम आवंटित धनराशि
भारत सरकार ने वित्तीय वर्ष 2016 -2017 में शुरू होने वाली इस योजना के लिए आगामी तीन वर्ष 2016-17 , 2017 -18 , 2018-19 के लिए 8 हज़ार करोड़ रुपये के वजट का आवंटन किया है। वित्तीय वर्ष 2016-2017 के लिए कुल 2 हज़ार करोड़ रूपये का आवंटन किया गया हैं। तथा इस साल डेढ़ करोड़ बीपीएल कार्ड धारक परिवारों को गैस कनेक्शन देने का लक्ष्य रखा है।
प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी की अपील पर लगभग 1 करोड़ 13 लाख परिवारों में गैस सब्सिडी छोड़ दी जिससे भारत सरकार को लगभग 5 हज़ार करोड़ रूपये का की बचत हुयी है जिसका उपयोग इस उज्जवला योजना में किया जायेगा ।
इस उज्जवला योजना के द्वारा प्रत्येक एलपीजी कनेक्शन के लिए भारत सरकार 1600 रूपये कि वित्तीय मदद भी करेगी । सरकार के द्वारा गैस रिफिलिंग के लिए मासिक किस्तो पैट लोन की सुविधा भी दे रही है।
इस योजना में कौन -2 एलपीजी कनेक्शन ले सकता है और उसकी पात्रता क्या होगी
आवेदन करने वाली महिला की उम्र 18 वर्ष से ज्यादा होनो चाहिए।
आवेदन करने वाली महिला बीपीएल कार्ड धारक तथा ग्रामीण निवासी होनी चाहिए।
गैस सब्सिडी लेने के लिए महिला का किसी सरकारी बैंक में बचत खता होना चाहिए।
आवेदन करने वाले परिवार में पहले से कोई गैस कनेक्शन नहीं होना चाहिए।
कौन -2 से जरुरी कागजात लगेंगे
बीपीएल राशन कार्ड ( सफ़ेद ता लाल राशन कार्ड ) की छाया प्रतिलिपि।
ग्राम प्रधान या नगर पालिका अध्यक्ष के द्वारा जारी बीपीएल प्रमाण पत्र।
एक फोटो पहचान पत्र जिससे की आवेदक की पहचान हो सके जिसमे आधार कार्ड का वोटर कार्ड शामिल है।
पासपोर्ट साइज का फोटो जो हाल -फिलहाल में बनवाया गया हो जिससे उसकी पहचान हो सके।
जनधन योजना के अंतर्गत खोला गया खाता या कोई अन्य बचत खाता तथा आधार कार्ड नंबर की जरुरत होगी।
आधी रात थी। नदी का किनारा था। आकाश के तारे स्थिर थे और नदी में उनका प्रतिबिम्ब लहरों के साथ चंचल। एक स्वर्गीय संगीत की मनोहर और जीवनदायिनी, प्राण-पोषिणी घ्वनियॉँ इस निस्तब्ध और तमोमय दृश्य पर इस प्रकाश छा रही थी, जैसे हृदय पर आशाऍं छायी रहती हैं, या मुखमंडल पर शोक।
रानी मनोरमा ने आज गुरु-दीक्षा ली थी। दिन-भर दान और व्रत में व्यस्त रहने के बाद मीठी नींद की गोद में सो रही थी। अकस्मात् उसकी ऑंखें खुलीं और ये मनोहर ध्वनियॉँ कानों में पहुँची। वह व्याकुल हो गयी—जैसे दीपक को देखकर पतंग; वह अधीर हो उठी, जैसे खॉँड़ की गंध पाकर चींटी। वह उठी और द्वारपालों एवं चौकीदारों की दृष्टियॉँ बचाती हुई राजमहल से बाहर निकल आयी—जैसे वेदनापूर्ण क्रन्दन सुनकर ऑंखों से ऑंसू निकल जाते हैं। सरिता-तट पर कँटीली झाड़िया थीं। ऊँचे कगारे थे। भयानक जंतु थे। और उनकी डरावनी आवाजें! शव थे और उनसे भी अधिक भयंकर उनकी कल्पना। मनोरमा कोमलता और सुकुमारता की मूर्ति थी। परंतु उस मधुर संगीत का आकर्षण उसे तन्मयता की अवस्था में खींचे लिया जाता था। उसे आपदाओं का ध्यान न था। वह घंटों चलती रही, यहॉँ तक कि मार्ग में नदी ने उसका गतिरोध किया।
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मनोरमा ने विवश होकर इधर-उधर दृष्टि दौड़ायी। किनारे पर एक नौका दिखाई दी। निकट जाकर बोली—मॉँझी, मैं उस पार जाऊँगी, इस मनोहर राग ने मुझे व्याकुल कर दिया है। मॉँझी—रात को नाव नहीं खोल सकता। हवा तेज है और लहरें डरावनी। जान-जोखिम हैं मनोरमा—मैं रानी मनोरमा हूँ। नाव खोल दे, मुँहमॉँगी मजदूरी दूँगी। मॉँझी—तब तो नाव किसी तरह नहीं खोल सकता। रानियों का इस में निबाह नहीं। मनोरमा—चौधरी, तेरे पॉँव पड़ती हूँ। शीघ्र नाव खोल दे। मेरे प्राण खिंचे चले जाते हैं। मॉँझी—क्या इनाम मिलेगा? मनोरमा—जो तू मॉँगे। ‘मॉँझी—आप ही कह दें, गँवार क्या जानूँ, कि रानियों से क्या चीज मॉँगनी चाहिए। कहीं कोई ऐसी चीज न मॉँग बैठूँ, जो आपकी प्रतिष्ठा के विरुद्ध हो? मनोरमा—मेरा यह हार अत्यन्त मूल्यवान है। मैं इसे खेवे में देती हूँ। मनोरमा ने गले से हार निकाला, उसकी चमक से मॉझी का मुख-मंडल प्रकाशित हो गया—वह कठोर, और काला मुख, जिस पर झुर्रियॉँ पड़ी थी। अचानक मनोरमा को ऐसा प्रतीत हुआ, मानों संगीत की ध्वनि और निकट हो गयी हो। कदाचित कोई पूर्ण ज्ञानी पुरुष आत्मानंद के आवेश में उस सरिता-तट पर बैठा हुआ उस निस्तब्ध निशा को संगीत-पूर्ण कर रहा है। रानी का हृदय उछलने लगा। आह ! कितना मनोमुग्धकर राग था ! उसने अधीर होकर कहा—मॉँझी, अब देर न कर, नाव खोल, मैं एक क्षण भी धीरज नहीं रख सकती। मॉँझी—इस हार हो लेकर मैं क्या करुँगा? मनोरमा—सच्चे मोती हैं। मॉँझी—यह और भी विपत्ति हैं मॉँझिन गले में पहन कर पड़ोसियों को दिखायेगी, वह सब डाह से जलेंगी, उसे गालियॉँ देंगी। कोई चोर देखेगा, तो उसकी छाती पर सॉँप लोटने लगेगा। मेरी सुनसान झोपड़ी पर दिन-दहाड़े डाका पड़ जायगा। लोग चोरी का अपराध लगायेंगे। नहीं, मुझे यह हार न चाहिए। मनोरमा—तो जो कुछ तू मॉँग, वही दूँगी। लेकिन देर न कर। मुझे अब धैर्य नहीं है। प्रतीक्षा करने की तनिक भी शक्ति नहीं हैं। इन राग की एक-एक तान मेरी आत्मा को तड़पा देती है। मॉँझी—इससे भी अच्दी कोई चीज दीजिए। मनोरमा—अरे निर्दयी! तू मुझे बातों में लगाये रखना चाहता हैं मैं जो देती है, वह लेता नहीं, स्वयं कुछ मॉँगता नही। तुझे क्या मालूम मेरे हृदय की इस समय क्या दशा हो रही है। मैं इस आत्मिक पदार्थ पर अपना सर्वस्व न्यौछावर कर सकती हूँ। मॉँझी—और क्या दीजिएगा? मनोरमा—मेरे पास इससे बहुमूल्य और कोई वस्तु नहीं है, लेकिन तू अभी नाव खोल दे, तो प्रतिज्ञा करती हूँ कि तुझे अपना महल दे दूँगी, जिसे देखने के लिए कदाचित तू भी कभी गया हो। विशुद्ध श्वेत पत्थर से बना है, भारत में इसकी तुलना नहीं। मॉँझी—(हँस कर) उस महल में रह कर मुझे क्या आनन्द मिलेगा? उलटे मेरे भाई-बंधु शत्रु हो जायँगे। इस नौका पर अँधेरी रात में भी मुझे भय न लगता। ऑंधी चलती रहती है, और मैं इस पर पड़ा रहता हूँ। किंतु वह महल तो दिन ही में फाड़ खायगा। मेरे घर के आदमी तो उसके एक कोने में समा जायँगे। और आदमी कहॉँ से लाऊँगा; मेरे नौकर-चाकर कहॉँ? इतना माल-असबाब कहॉँ? उसकी सफाई और मरम्मत कहॉँ से कराऊँगा? उसकी फुलवारियॉँ सूख जायँगी, उसकी क्यारियों में गीदड़ बोलेंगे और अटारियों पर कबूतर और अबाबीलें घोंसले बनायेंगी। मनोरमा अचानक एक तन्मय अवस्था में उछल पड़ी। उसे प्रतीत हुआ कि संगीत निकटतर आ गया है। उसकी सुन्दरता और आनन्द अधिक प्रखर हो गया था—जैसे बत्ती उकसा देने से दीपक अधिक प्रकाशवान हो जाता है। पहले चित्ताकर्षक था, तो अब आवेशजनक हो गया था। मनोरमा ने व्याकुल होकर कहा—आह! तू फिर अपने मुँह से क्यों कुछ नहीं मॉँगता? आह! कितना विरागजनक राग है, कितना विह्रवल करने वाला! मैं अब तनिक धीरज नहीं धर सकती। पानी उतार में जाने के लिए जितना व्याकुल होता है, श्वास हवा के लिए जितनी विकल होती है, गंध उड़ जाने के लिए जितनी व्याकुल होती है, मैं उस स्वर्गीय संगीत के लिए उतनी व्याकुल हूँ। उस संगीत में कोयल की-सी मस्ती है, पपीहे की-सी वेदना है, श्यामा की-सी विह्वलता है, इससे झरनों का-सा जोर है, ऑंधी का-सा बल! इसमें वह सब कुछ है, इससे विवेकाग्नि प्रज्ज्वलित होती, जिससे आत्मा समाहित होती है, और अंत:करण पवित्र होता है। मॉँझी, अब एक क्षण का भी विलम्ब मेरे लिए मृत्यु की यंत्रणा है। शीघ्र नौका खोल। जिस सुमन की यह सुगंध है, जिस दीपक की यह दीप्ति है, उस तक मुझे पहुँचा दे। मैं देख नहीं सकती इस संगीत का रचयिता कहीं निकट ही बैठा हुआ है, बहुत निकट। मॉँझी—आपका महल मेरे काम का नहीं है, मेरी झोपड़ी उससे कहीं सुहावनी है। मनोरमा—हाय! तो अब तुझे क्या दूँ? यह संगीत नहीं है, यह इस सुविशाल क्षेत्र की पवित्रता है, यह समस्त सुमन-समूह का सौरभ है, समस्त मधुरताओं की माधुरताओं की माधुरी है, समस्त अवस्थाओं का सार है। नौका खोल। मैं जब तक जीऊँगी, तेरी सेवा करुँगी, तेरे लिए पानी भरुँगी, तेरी झोपड़ी बहारुँगी। हॉँ, मैं तेरे मार्ग के कंकड़ चुनूँगी, तेरे झोंपड़े को फूलों से सजाऊँगी, तेरी मॉँझिन के पैर मलूँगी। प्यारे मॉँझी, यदि मेरे पास सौ जानें होती, तो मैं इस संगीत के लिए अर्पण करती। ईश्वर के लिए मुझे निराश न कर। मेरे धैर्य का अन्तिम बिंदु शुष्क हो गया। अब इस चाह में दाह है, अब यह सिर तेरे चरणों में है। यह कहते-कहते मनोरमा एक विक्षिप्त की अवस्था में मॉँझी के निकट जाकर उसके पैरों पर गिर पड़ी। उसे ऐसा प्रतीत हुआ, मानों वह संगीत आत्मा पर किसी प्रज्ज्वलित प्रदीप की तरह ज्योति बरसाता हुआ मेरी ओर आ रहा है। उसे रोमांच हो आया। वह मस्त होकर झूमने लगी। ऐसा ज्ञात हुआ कि मैं हवा में उड़ी जाती हूँ। उसे अपने पार्श्व-देश में तारे झिलमिलाते हुए दिखायी देते थे। उस पर एक आमविस्मृत का भावावेश छा गया और अब वही मस्ताना संगीत, वही मनोहर राग उसके मुँह से निकलने लगा। वही अमृत की बूँदें, उसके अधरों से टपकने लगीं। वह स्वयं इस संगीत की स्रोत थी। नदी के पास से आने वाली ध्वनियॉँ, प्राणपोषिणी ध्वनियॉँ उसी के मुँह से निकल रही थीं। मनोरमा का मुख-मंडल चन्द्रमा के तरह प्रकाशमान हो गया था, और ऑंखों से प्रेम की किरणें निकल रही थीं।
स्पस्टीकरण– प्रस्तुत कहानी हिन्दी साहित्य जगत के कथानायक प्रेमचंद की रचना है। अपने लेखन काल मे प्रेमचंद ने सैकड़ो कहानियां लिखी। उन्होने ने हिन्दी लेखन में यथार्थवाद की शुरुआत की। उनके रचनाओ में हने कई रंग देखने को मिलते है। मुख्य रूप से प्रेमचंद ने तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियो का सजीव वर्णन अपने साहित्यिक रचना के माध्यम से किया है। उनकी रचनाओ में हमे तत्कालीन दलित समाज, स्त्री दशा एवं समाज में व्याप्त विसंगतियाँ का दर्शन प्रत्यक्ष रूप से होता है। प्रेमचंद के संक्षिप्त जीवन परिचय जानने के लिए यहाँ क्लिक करे
जब कभी भी भारतीय साहित्य के इतिहास की चर्चा होगी तो वह गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर के नाम के बिना अधूरी ही रहेगी। रबीन्द्रनाथ टैगोर एक विश्वविख्यात कवि, साहित्यकार, दार्शनिक, कहानीकार, गीतकार, संगीतकार, नाटककार, निबंधकार तथा चित्रकार थे। भारतीय साहित्य गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर के योगदान के लिए सदैव उनका ऋणी रहेगा। वे अकेले ऐसे भारतीय साहित्यकार हैं जिन्हें नोबेल पुरस्कार मिला है। वह नोबेल पुरस्कार पाने वाले प्रथम एशियाई और साहित्य में नोबेल पाने वाले पहले गैर यूरोपीय भी थे।
वह दुनिया के अकेले ऐसे कवि हैं जिनकी रचनाएं दो देशों का राष्ट्रगान हैं – भारत का राष्ट्र-गान ‘जन गण मन’और बाँग्लादेश का राष्ट्रीय गान ‘आमार सोनार बाँग्ला’ रबीन्द्रनाथ टैगोर की ही रचनाएँ हैं। गुरुदेवएवं कविगुरु, रबीन्द्रनाथ टैगोर के उपनाम थे। इन्हें रबीन्द्रनाथ ठाकुरके नाम से भी जाना जाता है।
रबीन्द्रनाथ टैगोर का जन्म 7 May 1861को कोलकाता के जोड़ासाँको ठाकुरबाड़ी में एक अमीर बंगाली परिवार में हुआ था। इनके पिता का नाम देवेंद्रनाथ टैगोर और माता का नाम शारदा देवी था। उनकी प्रारम्भिक पढ़ाई सेंट ज़ेवियर स्कूल में हुई। वे वकील बनने की इच्छा से 1878 ई. में लंदन गए, लेकिन वहाँ से पढ़ाई पूरी किए बिना हीं 1880 ई. में वापस लौट आए।
टैगोर बचपन से हीं बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। रबीन्द्रनाथ टैगोरकी बाल्यकाल से कविताएं और कहानियाँ लिखने में रुचि थी। उन्होंने अपनी पहली कविता 8 साल की छोटी आयु में हीं लिख डाली थी 1877 में केवल सोलह साल की उम्र में उनकी लघुकथा प्रकाशित हुई थी। टैगोर ने करीब 2,230 गीतों की रचना की है। रबीन्द्रनाथ संगीत, बाँग्ला संस्कृति का अभिन्न अंग है।
लन्दन से वापस आने के पश्चात वर्ष 1883 में उनका विवाह मृणालिनी देवीसे हुआ। इंग्लैंड से वापस आने और अपनी शादी के बाद से लेकर सन 1901 तक का अधिकांश समय रबीन्द्रनाथ ने सिआल्दा जो अब बांग्लादेश में है, स्थित अपने परिवार की जागीर में अपनी पत्नी और बच्चों के साथ बिताया। यहाँ उन्होंने ने ग्रामीण एवं गरीब जीवन को बहुत पास से देखा। इस बीच तक उन्होंने ग्रामीण बंगाल के पृष्ठभूमि पर आधारित कई लघु कथाएँ लिखीं एवं स्वयं को एक विख्यात साहित्यकार के रूप में स्थापित कर लिया था।
रबीन्द्रनाथ टैगोर बचपन से ही प्रकृति प्रेमी थे। वह हमेशा सोचा करते थे कि प्रकृति के सानिध्य में ही विद्यार्थियों को अध्ययन करना चाहिए। इसी सोच को मूर्तरूप देने के लिए वह 1901 में वह शान्तिनिकेतन आ गए। प्रकृति के सान्निध्य में पेड़ों, बगीचों और एक लाइब्रेरी के साथ टैगोर ने शान्तिनिकेतन की स्थापना की। यह रबीन्द्रनाथ के अथक प्रयासों का ही नतीजा था कि उनके द्वारा स्थापित शान्तिनिकेतन 1921 ई. में विश्वभारती नामक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के रूप में ख्यातिप्राप्त हुआ। यह साहित्य, संगीत और कला की शिक्षा के क्षेत्र में पूरे देश में एक आदर्श विश्वविद्यालय के रूप में पहचाना जाता है। देश के कई प्रमुख व्यक्तियों ने यहाँ से अपनी शिक्षा प्राप्त किया है।
साहित्य की शायद ही ऐसी कोई विधा हो, जिनमें उनकी रचना न हो कविता, गान, कथा, उपन्यास, नाटक, प्रबन्ध, शिल्पकला सभी विधाओं में उन्होंने रचना की है। उनकी कृतियों में – गीतांजली, गीताली, गीतिमाल्य, पूरबी प्रवाहिनी, शिशु भोलानाथ, महुआ, वनवाणी, परिशेष,, वीथिका शेषलेखा, चोखेरबाली, कणिका, खेलाऔर क्षणिकाआदि शामिल हैं। क़ाबुलीवाला, मास्टर साहबऔर पोस्टमास्टरउनकी कुछ प्रमुख प्रसिद्ध कहानियाँ है। उन्होंने कुछ पुस्तकों का अंग्रेजी में अनुवाद भी किया। टैगोर ने करीब 2,230 गीतों की रचना की है गुरुदेव रवीन्द्रनाथ की सबसे लोकप्रिय रचना ‘गीतांजलि’ रही जिसके लिए 1913 में उन्हें नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। गीतांजलि लोगों को बहुत पसंद आई. गीतांजली का अंग्रेज़ी, जर्मन, फ्रैंच, जापानी, रूसी आदि विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में इसका अनुवाद किया गया। टैगोर का नाम दुनिया के कोने-कोने में फ़ैल गया और वे विश्व – मंच पर स्थापित हो गये। रबीन्द्रनाथ टैगोर के कार्यो को देखकर अंग्रेज सरकार ने 1915 ई. में उन्हें सर की उपाधि से समानित किया।
अपने जीवन में उन्होंने कई देशों की यात्रा किया. आइंस्टाइन जैसे महान वैज्ञानिक, रवीन्द्रनाथ टैगोर को ‘‘रब्बी टैगोर’’के नाम से पुकारते थे। आइंस्टाइन , रबीन्द्रनाथ के प्रसंशक थे। यहूदी धर्म एवं हिब्रू भाषा में ‘‘रब्बी’’ का अर्थ “गुरू’’ अथवा “मेरे गुरु” होता है। 1919 में हुए जलियाँवालाबाग हत्याकांड की टैगोर ने जमकर निंदा की और इसके विरोध में उन्होंने अपना “सर” का ख़िताब लौटा दिया।
रबीन्द्रनाथ टैगोरकी मृत्यु लम्बी बीमारी के कारण 7 अगस्त 1941को कोलकाता में हुई। रबीन्द्रनाथ टैगोर भारत के उन महान विभुतिओं में से एक है जिनका नाम सदैव सुनहरे अक्षरों में हमारे मन मस्तिष्क पर अंकित रहेगा। वे भारत के अनमोल रत्नों में से एक थे। प्रस्तुत लेखन के द्वारा मैंने गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर के जीवन वृतांत को प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है। यह मेरी तरफ से कविगुरु को श्रधांजलि है। आप जैसे महापुरुष को शत्- शत् नमन है।
हम हमेशा अपने आस पास ,खबरों में या इन्टरनेट पर BLOG (ब्लॉग), Blogger(ब्लॉगर) एवं Blogging(ब्लॉगिंग) शब्द के बारे में सुनते रहते है। पर अपने क्या कभी यह सोचा है यह ब्लॉग आखिर होता क्या है? साधारण तौर पर हम हम यह जानते है कि ब्लॉग एक प्रकार का वेबसाइट होता है जो काफी हद तक सही भी है। परन्तु एक वेबसाइट एवं एक Blog में कुछ बेसिक अंतर भी होता है। तो आइये हम यह समझने की कोशिश करते है की ब्लॉग क्या है(What is a blog)?
Blog(ब्लॉग)
ब्लॉग एक प्रकार की वेबसाइट होता है जो Weblog का संक्षिप्त संस्करण है। यह एक डायरी अथवा पत्रिका की तरह का वेबसाइट होता है जिसमे तिथि के क्रमानुसार entries एंट्रीज़ होती है जो कि Post कही जाती है। एक ब्लॉग आम तौर पर बार बार और नियमित रूप से अद्यतन किया जाता है। इसमें सबसे नवीन Post सबसे पहले दिखाई देता है। ब्लॉग किसी भी Subject पर हो सकता है। यह Personal, व्यवसायिक अथवा राजनीतिक भी हो सकता है। यह दुनिया के लिए अपने आप को व्यक्त करने के लिए, अपने विचारों और अपनी भावनाएं साझा करने के लिए एक जगह है। हर ब्लॉग में एक Comment Area (टिप्पणी क्षेत्र) होता है जो ब्लॉग के Users से सीधे संपर्क करने का एक प्रभावी माध्यम है। इस प्रकार हम कह सकते है कि एक ब्लॉग–
blog
· एक ब्लॉग वेबसाइट का एक प्रकार है जो प्रविष्टियों को कालानुक्रमिक क्रम में प्रदर्शित है। · यह एक ऑनलाइन पत्रिका या डायरी के रूप में लगता है। · यह नियमित रूप से अद्यतन किया जाता है। · ब्लॉग में आमतौर पर लोगों को टिप्पणी करने के लिए या ब्लॉग पोस्ट का जवाब के लिए एक क्षेत्र होता है।
Blogger(ब्लॉगर)
Blogger एक व्यक्ति या व्यक्तिओं का समूह होता है जो एक ब्लॉग के लिए सामग्री(Post) लिखता है।
Blogging(ब्लॉगिंग)
एक ब्लॉग के लिए एक पोस्ट(Post) लिखने की कार्रवाई अथवा एक ब्लॉग के प्रबंधन के लिए जो कार्य किया जाता है उसे Blogging कहते है।
ब्लॉग का फायदा क्या है(What is the uses of blog)
किसी भी ब्लॉग से एक ब्लॉगर अपने विचारों को सबके सामने प्रकट करता है। ब्लॉग एक माध्यम होता है जिससे कोई व्यक्ति अपने ज्ञान , विचार अथवा जानकारी को पूरी दुनिया से Share करता है। साथ ही साथ उसे पढने वाला भी उसपर अपनी टिप्पणी प्रकट कर सकता है। ब्लॉग से आप पैसे भी कम सकते है। अगर आपके ब्लॉग पर Daily Visitors की संख्या अधिक है तो आप अपने ब्लॉग से बहुत अच्छी कमाई कर सकते है।
ब्लॉग की बनावट (Blog Design)
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ब्लॉग भी एक वेबसाइट ही होता है एवं इसे आप कई प्रकार से Design कर सकते है। लेकिन सामान्यतः एक ब्लॉग के Structure को आप चार भागों में बांट सकते है। 1. Header 2. Main Contant 3. Sidebar 4. Footer
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इसमें Header में ब्लॉग tital होता है। Main Contant सेक्शन में तिथि के क्रमानुसार Articles या Post होता है। उसके बाद Sidebar और Footer हटा है जिसमे महत्वपूर्ण Links और Subscribe Options होते है।
आज मेरी आयु केवल सत्ताईस साल की है। यह जीवन न दीर्घता के हिसाब से बड़ा है, न गुण के हिसाब से। तो भी इसका एक विशेष मूल्य है। यह उस फूल के समान है जिसके वक्ष पर भ्रमर आ बैठा हो और उसी पदक्षेप के इतिहास ने उसके जीवन के फल में गुठली का-सा रूप धारण कर लिया हो। वह इतिहास आकार में छोटा है, उसे छोटा करके ही लिखूंगा। जो छोटे को साधारण समझने की भूल नहीं करेंगे वे इसका रस समझेंगे। कॉलेज में पास करने के लिए जितनी परीक्षाएं थीं सब मैंने खत्म कर ली हैं। बचपन में मेरे सुंदर चेहरे को लेकर पंडितजी को सेमल के फूल तथा माकाल फल1 के साथ मेरी तुलना करके हंसी उड़ाने का मौका मिला था। तब मुझे इससे बड़ी लज्जा लगती थी; किंतु बड़े होने पर सोचता रहा हूं कि यदि पुनर्जन्म हो तो मेरे मुख पर सुरूप और पंडितजी के मुख पर विद्रूप इसी प्रकार प्रकट हो। एक दिन था जब मेरे पिता गरीब थे। वकालत करके उन्होंने बहुत-सा रुपया कमाया, भोग करने का उन्हें पल-भर भी समय नहीं मिला। मृत्यु के समय उन्होंने जो लंबी सांस ली थी वही उनका पहला अवकाश था। उस समय मेरी अवस्था कम थी। मां के ही हाथों मेरा लालन-पालन हुआ। मां गरीब घर की बेटी थीं; अत: हम धनी थे यह बात न तो वे भूलतीं, और न मुझे भूलने देतीं बचपन में मैं सदा गोद में ही रहा, शायद इसीलिए मैं अंत तक पूरी तौर पर वयस्क ही नहीं हुआ। आज ही मुझे देखने पर लगेगा जैसे मैं अन्नपूर्णा की गोद में गजानन का छोटा भाई होऊं। मेरे असली अभिभावक थे मेरे मामा। वे मुझसे मुश्किल से छ: वर्ष बड़े होंगे। किंतु, फल्गु की रेती की तरह उन्होंने हमारे सारे परिवार को अपने हृदय में सोख
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बाहर से देखने में सुंदर तथा भीतर से दुर्गंधयुक्त और अखाद्य गुदे वाला एक फल। लिया था। उन्हें खोदे बिना इस परिवार का एक भी बूंद रस पाने का कोई उपाय नहीं। इसी कारण मुझे किसी भी वस्तु के लिए कोई चिंता नहीं करनी पड़ती। हर कन्या के पिता स्वीकार करेंगे कि मैं सत्पात्र हूं। हुक्का तक नहीं पीता। भला आदमी होने में कोई झंझट नहीं है, अत: मैं नितांत भलामानस हूं। माता का आदेश मानकर चलने की क्षमता मुझमें है- वस्तुत: न मानने की क्षमता मुझमें नहीं है। मैं अपने को अंत:पुर के शासनानुसार चलने के योग्य ही बना सका हूं, यदि कोई कन्या स्वयंवरा हो तो इन सुलक्षणों को याद रखे। बड़े-बड़े घरों से मेरे विवाह के प्रस्ताव आए थे। किंतु मेरे मामा का, जो धरती पर मेरे भाग्य देवता के प्रधान एजेंट थे, विवाह के संबंध में एक विशेष मत था। अमीर की कन्या उन्हें पसंद न थी। हमारे घर जो लड़की आए वह सिर झुकाए हुए आए, वे यही चाहते थे। फिर भी रुपये के प्रति उनकी नस-नस में आसक्ति समाई हुई थी। वे ऐसा समधी चाहते थे जिसके पास धन तो न हो, पर जो धन देने में त्रुटि न करे। जिसका शोषण तो कर लिया जाए, पर जिसे घर आने पर गुड़गुड़ी के बदले बंधे हुक्के में तंबाकू देने पर जिसकी शिकायत न सुननी पड़े। मेरा मित्र हरीश कानपुर में काम करता था। छुट्टियों में उसने कलकत्ता आकर मेरा मन चंचल कर दिया। बोला,सुनो जी, अगर लड़की की बात हो तो एक अच्छी-खासी लड़की है। कुछ दिन पहले ही एम.ए. पास किया था। सामने जितनी दूर तक दृष्टि जाती, छुट्टी धू-धू कर रही थी; परीक्षा नहीं है, उम्मीदवारी नहीं, नौकरी नहीं; अपनी जायदाद देखने की चिंता भी नहीं, शिक्षा भी नहीं, इच्छा भी नहीं- होने में भीतर मां थीं और बाहर मामा। इस अवकाश की मरुभूमि में मेरा हृदय उस समय विश्वव्यापी नारी-रूप की मरीचिका देख रहा था- आकाश में उसकी दृष्टि थी, वायु में उसका निश्वास, तरु-मर्मर में उसकी रहस्यमयी बातें। ऐसे में ही हरीश आकर बोला, अगर लड़की की बात हो तो। मेरा तन मन वसंत वायु से दोलायित बकुल वन की नवपल्लव-राशि की भांति धूप-छांह का पट बुनने लगा। हरीश आदमी था रसिक, रस उंडेलकर वर्णन करने की उसमें शक्ति थी, और मेरा मन था तृर्षात्त। मैंने हरीश से कहा, एक बार मामा से बात चलाकर देखो! बैठक जमाने में हरीश अद्वितीय था। इससे सर्वत्र उसकी खातिर होती थी।
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गुड़गुड़ी हुक्का अधिक सम्मान-सूचक समझा जाता है, बंधा हुक्का मामूली हुक्का होता है। मामा भी उसे पाकर छोड़ना नहीं चाहते थे। बात उनकी बैठक में चली। लड़की की अपेक्षा लड़की के पिता की जानकारी ही उनके लिए महत्वपूर्ण थी। पिता की अवस्था वे जैसी चाहते थे वैसी ही थी। किसी जमाने में उनके वंश में लक्ष्मी का मंगल घट भरा रहता था। इस समय उसे शून्य ही समझो, फिर भी तले में थोड़ा-बहुत बाकी था। अपने प्रांत में वंश-मर्यादा की रक्षा करके चलना सहज न समझकर वे पश्चिम में जाकर वास कर रहे थे। वहां गरीब गृहस्थ की ही भांति रहते थे। एक लड़की को छोड़कर उनके और कोई नहीं था। अतएव उसी के पीछे लक्ष्मी के घट को एकदम औंधा कर देने में हिचकिचाहट नहीं होगी। यह सब तो सुंदर था। किंतु, लड़की की आयु पंद्रह की है यह सुनकर मामा का मन भारी हो गया। वंश में तो कोई दोष नहीं है? नहीं, कोई दोष नहीं- पिता अपनी कन्या के योग्य वर कहीं भी न खोज पाए। एक तो वर की हाट में मंहगाई थी, तिस पर धनुष-भंग की शर्त, अत: बाप सब्र किए बैठे हैं,-किंतु कन्या की आयु सब्र नहीं करती। जो हो, हरीश की सरस रचना में गुण था मामा का मन नरम पड़ गया। विवाह का भूमिका-भाग निर्विघ्न पूरा हो गया। कलकत्ता के बाहर बाकी जितनी दुनिया है, सबको मामा अंडमान द्वीप के अंतर्गत ही समझते थे। जीवन में एकबार विशेष काम से वे कोन्नगर तक गए थे। मामा यदि मनु होते तो वे अपनी संहिता में हावड़ा के पुल को पार करने का एकदम निषेध कर देते। मन में इच्छा थी, खुद जाकर लड़की देख आऊं। पर प्रस्ताव करने का साहस न कर सका। कन्या को आशीर्वाद देने1 जिनको भेजा गया वे हमारे विनु दादा थे, मेरे फुफेरे भाई। उनके मत, रुचि एवं दक्षता पर मैं सोलह आने निर्भर कर सकता था। लौटकर विनु दादा ने कहा, बुरी नहीं है जी! असली सोना है। विनु दादा की भाषा अत्यंत संयत थी। जहां हम कहते थे ‘अपूर्व’, वहां वे कहते ‘कामचलाऊ’। अतएव मैं समझा, मेरे भाग्य में पंचशर का प्रजापति से कोई विरोध नहीं है।
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कहना व्यर्थ है, विवाह के उपलक्ष्य में कन्या पक्ष को ही कलकत्ता आना पड़ा। कन्या के पिता शंभूनाथ बाबू हरीश पर कितना विश्वास करते थे, इसका प्रमाण यह था कि विवाह के तीन दिन पहले उन्होंने मुझे पहली बार देखा और आशीर्वाद की रस्म बंगालियों में विवाह पक्का करने के लिए एक रस्म होती है- जिसमें वर-पक्ष के लोग कन्या को और कन्या-पक्ष के लोग वर को आशीर्वाद देकर कोई आभूषण दे जाते हैं। पूरी कर गए। उनकी अवस्था चालीस के ही आस-पास होगी। बाल काले थे, मूंछों का पकना अभी प्रारंभ ही हुआ था। रूपवान थे, भीड़ में देखने पर सबसे पहले उन्हीं पर नजर पड़ने लायक उनका चेहरा था। आशा करता हूं कि मुझे देखकर वे खुश हुए। समझना कठिन था, क्योंकि वे अल्पभाषी थे। जो एकाध बात कहते भी थे उसे मानो पूरा जोर देकर नहीं कहते थे। इस बीच मामा का मुंह अबाध गति से चल रहा था- धन में, मान में हमारा स्थान शहर में किसी से कम नहीं था, वे नाना प्रकार से इसी का प्रचार कर रहे थे। शंभूनाथ बाबू ने इस बात में बिल्कुल योग नहीं दिया- किसी भी प्रसंग में कोई ‘हां’ या ‘हूं’ तक नहीं सुनाई पड़ी। मैं होता तो निरुत्साहित हो जाता, किंतु मामा को हतोत्साहित करना कठिन था। उन्होंने शंभूनाथ बाबू का शांत स्वभाव देखकर सोचा कि आदमी बिल्कुल निर्जीव है, तनिक भी तेज नहीं। समधियों में और जो हो, तेज भाव होना पाप है, अतएव, मन-ही-मन मामा खुश हुए। शंभूनाथ बाबू जब उठे तो मामा ने संक्षेप में ऊपर से ही उनको विदा कर दिया, गाड़ी में बिठाने नहीं गए।
दहेज के संबंध में दोनों पक्षों में बात पक्की हो गई थी। मामा अपने को असाधारण चतुर समझकर गर्व करते थे। बातचीत में वे कहीं भी कोई छिद्र न छोड़ते। रुपये की संख्या तो निश्चित थी ही, ऊपर से गहना कितने भर एवं सोना किस दर का होगा, यह भी एकदम तय हो गया था। मैं स्वयं इन बातों में नहीं था; न जानता ही था कि क्या लेन-देन निश्चित हुआ है। मैं जानता था कि यह स्थूल भाग ही विवाह का एक प्रधान अंग है; एवं उस अंश का भार जिनके ऊपर है वे एक कौड़ी भी नहीं ठगाएंगे। वस्तुत: अत्यंत चतुर व्यक्ति के रूप में मामा हमारे सारे परिवार में गर्व की प्रधान वस्तु थे। जहां कहीं भी हमारा कोई संबंध हो पर्वत ही बुध्दि की लड़ाई में जीतेंगे, यह बिल्कुल पक्की बात थी। इसलिए हमारे यहां कभी न रहने पर भी एवं दूसरे पक्ष में कठिन अभाव होते हुए भी हम जीतेंगे, हमारे परिवार की जिद थी- इसमें चाहे कोई बचे या मरे। हल्दी चढ़ाने की रस्म बड़ी धूमधाम से हुई। ढोने वाले इतने थे कि उनकी संख्या का हिसाब रखने के लिए क्लर्क रखना पड़ता। उनको विदा करने में अवर पक्ष का जो नाकों-दम होगा उसका स्मरण करके मामा के साथ स्वर मिलाकर मां खूब हंसी।
बैंड, शहनाई, फैंसी कंसर्ट आदि जहां जितने प्रकार की जोरदार आवाजें थीं, सबको एक साथ मिलाकर बर्बर कोलाहल रूपी मस्त हाथी द्वारा संगीत सरस्वती के पर्विंन को दलित-विदलित करता हुआ मैं विवाह के घर में जा पहुंचा। अंगूठी, हार, जरी, जवाहरात से मेरा शरीर ऐसा लग रहा था जैसे गहने की दुकान नीलाम पर चढ़ी हो। उनके भावी जमाता का मूल्य कितना था यह जैसे कुछ मात्रा में सर्वांग में स्पष्ट रूप से लिखकर भावी ससुर के साथ मुकाबला करने चला था।
मामा विवाह के घर पहुंचकर प्रसन्न नहीं हुए। एक तो आंगन में बरातियों कै बैठने के लायक जगह नहीं थी, तिस पर संपूर्ण आयोजन एकदम साधारण ढंग का था। ऊपर से शंभूनाथ बाबू का व्यवहार भी निहायत ठंडा था। उनकी विनय अजस्र नहीं थी। मुंह में शब्द ही न थे। बैठे गले, गंजी खोपड़ी, कृष्णवर्ण एवं स्थूल शरीर वाले उनके एक वकील मित्र यदि कमर में चादर बांधे, बराबर हाथ जोड़े, सिर हिलाते हुए, नम्रतापूर्ण स्मितहास्य और गद्गद वचनों से कंसर्ट पार्टी के करताल बजाने वाले से लेकर वरकर्ता तक प्रत्येक को बार-बार प्रचुर मात्रा में अभिषिक्त न कर देते तो शुरू में ही मामला इस पार या उस पार हो जाता। मेरे सभा में बैठने के कुछ देर बाद ही मामा शंभूनाथ बाबू को बगल के कमरे में बुला ले गए। पता नहीं, क्या बातें हुईं। कुछ देर बाद ही शंभूनाथ बाबू ने आकर मुझसे कहा, लालाजी, जरा इधर तो आइए!’ मामला यह था- सभी का न हो, किंतु किसी-किसी मनुष्य का जीवन में कोई एक लक्ष्य रहता है। मामा का एकमात्र लक्ष्य था-वे किसी भी प्रकार किसी से ठगे नहीं जाएंगे। उन्हें डर था कि उनके समधी उन्हें गहनों में धोखा दे सकते हैं- विवाह-कार्य समाप्त हो जाने पर उस धोखे का कोई प्रतिकार न हो सकेगा। घर-किराया, सौगात, लोगों की विदाई आदि के विषय में जिस प्रकार की खींचातानी का परिचय मिला उससे मामा ने निश्चय किया था- लेने-देने के संबंध में इस आदमी की केवल जबानी बात पर निर्भर रहने से काम न चलेगा। इसी कारण घर के सुनार तक को साथ लाए थे। बगल के कमरे में जाकर देखा, मामा एक कुर्सी पर बैठे थे। एक सुनार अपनी तराजू, बाट और कसौटी आदि लिए जमीन पर।
शंभूनाथ बाबू ने मुझसे कहा,तुम्हारे मामा कहते हैं कि विवाह-कार्य शुरू होने के पहले ही वे कन्या के सारे गहने जंचवा देखेंगे, इसमें तुम्हारी क्या राय है? मैं सिर नीचा किए चुप रहा। मामा बोले,वह क्या कहेगा। मैं जो कहूंगा, वही होगा। शंभूनाथ बाबू ने मेरी ओर देखकर कहा, तो फिर यही तय रहा? ये जो कहेंगे वही होगा? इस संबंध में तुम्हें कुछ नहीं कहना है? मैंने जरा गर्दन हिलाकर इशारे से बताया, इन सब बातों में मेरा बिल्कुल भी अधिकार नहीं है।अच्छा तो बैठो, लड़की के शरीर से सारा गहना उतारकर लाता हूं। यह कहते हुए वे उठे। मामा बोले, अनुपम यहां क्या करेगा? वह सभा में जाकर बैठे। शंभूनाथ बोले, नहीं, सभा में नहीं, यहीं बैठना होगा। कुछ देर बाद उन्होंने एक अंगोछे में बंधे गहने लाकर चौकी के ऊपर बिछा दिए। सारे गहने उनकी पितामही के जमाने के थे, नए फैशन का बारीक काम न था- जैसा मोटा था वैसा ही भारी था। सुनार ने हाथ में गहने उठाकर कहा, इन्हें क्या देखूं। इसमें कोई मिलावट नहीं है- ऐसे सोने का आजकल व्यवहार ही नहीं होता। यह कहते हुए उसने मकर के मुंह वाला मोटा एक बाला कुछ दबाकर दिखाया, वह टेढ़ा हो जाता था। मामा ने उसी समय नोट-बुक में गहनों की सूची बना ली- कहीं जो दिखाया गया था उसमें से कुछ कम न हो जाए। हिसाब करके देखा, गहना जिस मात्रा में देने की बात थी इनकी संख्या, दर एवं तोल उससे अधिक थी। गहनों में एक जोड़ा इयरिंग था। शंभूनाथ ने उसको सुनार के हाथ में देकर कहा, जरा इसकी परीक्षा करके देखो! सुनार ने कहा, यह विलायती माल है, इसमें सोने का हिस्सा मामूली ही है। शंभू बाबू ने इयरिंग जोड़ी मामा के हाथ में देते हुए कहा, इसे आप ही रखें! मामा ने उसे हाथ में लेकर देखा, यही इयरिंग कन्या को देकर उन्होंने आशीर्वाद की रस्म पूरी की थी। मामा का चेहरा लाल हो उठा, दरिद्र उनको ठगना चाहेगा, किंतु वे ठगे नहीं जाएंगे इस आनंद-प्राप्ति से वंचित रह गए, एवं इसके अतिरिक्त कुछ ऊपरी प्राप्ति भी हुई। मुंह अत्यंत भारी करके बोले, अनुपम, जाओ तुम सभा में जाकर बैठो! शंभूनाथ बाबू बोले, नहीं, अब सभा में बैठना नहीं होगा। चलिए, पहले आप लोगों को खिला दूं। मामा बोले, यह क्या कह रहे हैं? लग्नशंभूनाथ बाबू ने कहा, उसके लिए चिंता न करें- अभी उठिए! आदमी निहायत भलामानस था, किंतु अंदर से कुछ ज्यादा हठी प्रतीत हुआ। मामा को उठना पड़ा। बरातियों का भी भोजन हो गया। आयोजन में आडंबर नहीं था। किंतु रसोई अच्छी बनी थी और सब-कुछ साफ-सुथरा। इससे सभी तृप्त हो गए। बरातियों का भोजन समाप्त होने पर शंभूनाथ बाबू ने मुझसे खाने को कहा। मामा ने कहा, यह क्या कह रहे हैं? विवाह के पहले वर कैसे भोजन करेगा! इस संबंध में वे मामा के व्यक्त किए मत की पूर्ण उपेक्षा करके मेरी ओर देखकर बोले, तुम क्या कहते हो? भोजन के लिए बैठने में कोई दोष है?मूर्तिमती मातृ-आज्ञा-स्वरूप मामा उपस्थित थे, उनके विरुध्द चलना मेरे लिए असंभव था। मैं भोजन के लिए न बैठ सका। तब शंभूनाथ बाबू ने मामा से कहा,आप लोगों को बहुत कष्ट दिया है। हम लोग धनी नहीं हैं। आप लोगों के योग्य व्यवस्था नहीं कर सके, क्षमा करेंगे। रात हो गई है, आप लोगों का कष्ट और नहीं बढ़ाना चाहता। तो फिर इस समय- मामा बोले, तो, सभा में चलिए, हम तो तैयार हैं। शंभूनाथ बोले, तब आपकी गाड़ी बुलवा दूं? मामा ने आश्चर्य से कहा,मजाक कर रहे हैं क्या? शंभूनाथ ने कहा, मजाक तो आप ही कर चुके हैं। मजाक के संपर्क को स्थायी करने की मेरी इच्छा नहीं है। मामा दोनों आंखें विस्फारित किए अवाक् रह गए। शंभूनाथ ने कहा, अपनी कन्या का गहना मैं चुरा लूंगा, जो यह बात सोचता है उसके हाथों मैं कन्या नहीं दे सकता। मुझसे एक शब्द कहना भी उन्होंने आवश्यक नहीं समझा। कारण, प्रमाणित हो गया था, मैं कुछ भी नहीं था। उसके बाद जो हुआ उसे कहने की इच्छा नहीं होती। झाड़-फानूस तोड़-फोड़कर चीज-वस्तु को नष्ट-भ्रष्ट करके बरातियों का दल दक्ष-यज्ञ का नाटक पूरा करके बाहर चला आया। घर लौटने पर बैंड, शहनाई और कंसर्ट सब साथ नहीं बजे एवं अभ्रक के झाड़ों ने आकाश के तारों के ऊपर अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करके कहां महानिर्वाण प्राप्त किया, पता नहीं चला।
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घर के सब लोग क्रोध से आग-बबूला हो गए। कन्या के पिता को इतना घमंड कलियुग पूर्ण रूप से आ गया है! सब बोले, देखें, लड़की का विवाह कैसे करते हैं।किंतु, लड़की का विवाह नहीं होगा, यह भय जिसके मन में न हो उसको दंड देने का क्या उपाय है? बंगाल-भर में मैं ही एकमात्र पुरुष था जिसको स्वयं कन्या के पिता ने जनवासे से लौटा दिया था। इतने बड़े सत्पात्र के माथे पर कलंक का इतना बड़ा दाग किस दुष्ट ग्रह ने इतना प्रचार करके गाजे-बाजे से समारोह करके आंक दिया? बराती यह कहते हुए माथा पीटने लगे कि विवाह नहीं हुआ, लेकिन हमको धोखा देकर खिला दिया- संपूर्ण अन्न सहित पक्वाशय निकालकर वहां फेंक आते तो अफसोस मिटता।‘विवाह के वचन-भंग का और मान-हानि का दावा करूंगा’ कहकर मामा घूम-घूमकर खूब शोर मचाने लगे। हितैषियों ने समझा दिया कि ऐसा करने से जो तमाशा बाकी रह गया है वह भी पूरा हो जाएगा। कहना व्यर्थ है, मैं भी खूब क्रोधित हुआ था। ‘किसी प्रकार शंभूनाथ बुरी तरह हारकर मेरे पैरों पर आ गिरे,’ मूंछों की रेखा पर ताव देते-देते केवल यही कामना करने लगा। किंतु, इस आक्रोश की काली धारा के समीप एक और स्रोत बह रहा था, जिसका रंग बिल्कुल भी काला नहीं था। संपूर्ण मन उस अपरिचित की ओर दौड़ गया। अभी तक उसे किसी भी प्रकार वापस नहीं मोड़ सका। दीवार की आड़ में रह गया। उसके माथे पर चंदन चर्चित था, देह पर लाल साड़ी, चेहरे पर लज्जा की ललाई, हृदय में क्या था यह कैसे कह सकता हूं! मेरे कल्पलोक की कल्पलता वसंत के समस्त फूलों का भार मुझे निवेदित कर देने के लिए झुक पड़ी थी। हवा आ रही थी, सुगंध मिल रही थी, पत्तों का शब्द सुन रहा था- केवल एक पग बढ़ाने की देर थी- इसी बीच वह पग-भर की दूरी क्षण-भर में असीम हो गई। इतने दिन तक रोज शाम को मैंने विनु दादा के घर जाकर उनको परेशान कर डाला था। विनु दादा की वर्णन-शैली की अत्यंत सघन संक्षिप्तता के कारण उनकी प्रत्येक बात ने स्फुल्लिंग के समान मेरे मन में आग लगा दी थी। मैंने समझा था कि लड़की का रूप बड़ा अपूर्व था; किंतु न तो उसे आंखों देखा और न उसका चित्र, सब-कुछ अस्पष्ट रह गया। बाहर तो उसने पकड़ दी ही नहीं, उसे मन में भी न ला सका- इसी कारण भूत के समान दीर्घ निश्वास लेकर मन उस दिन की उस विवाह-सभा की दीवार के बाहर चक्कर काटने लगा।
हरीश से सुना, लड़की को मेरा फोटोग्राफ दिखाया गया था। पसंद अवश्य किया होगा। न करने का तो कोई कारण ही न था। मेरा मन कहता है, वह चित्र उसने किसी बक्स में छिपा रखा है। कमरे का दरवाजा बन्द करके अकेली किसी-किसी निर्जन दोपहरी में क्या वह उसे खोलकर न देखती होगी? जब झुककर देखती होगी तब चित्र के ऊपर क्या उसके मुख के दोनों ओर से खुले बाल आकर नहीं पड़ते होंगे? अकस्मात् बाहर किसी के पैर की आहट पाते ही क्या वह झट-पट अपने सुगंधित अंचल में चित्र को छिपा न लेती होगी?
दिन बीत जाते हैं। एक वर्ष बीत गया। मामा तो लज्जा के मारे विवाह संबंध की बात ही न छेड़ पाते। मां की इच्छा थी, मेरे अपमान की बात जब समाज के लोग भूल जाएंगे तब विवाह का प्रयत्न करेंगी। दूसरी ओर मैंने सुना कि शायद उस लड़की को अच्छा वर मिल गया है, किंतु उसने प्रण किया है कि विवाह नहीं करेगी। सुनकर मन आनंद के आवेश से भर गया। मैं कल्पना में देखने लगा, वह अच्छी तरह खाती नहीं; संध्या हो जाती है, वह बाल बांधना भूल जाती है। उसके पिता उसके मुंह की ओर देखते हैं और सोचते हैं, ‘मेरी लड़की दिनोंदिन ऐसी क्यों होती जा रही है?’ अकस्मात् किसी दिन उसके कमरे में आकर देखते हैं, लड़की के नेत्र आंसुओं से भरे हैं। पूछते हैं, बेटी, तुझे क्या हो गया है, मुझे बता? लड़की झटपट आंसू पोंछकर कहती है, ‘कहां, कुछ भी तो नहीं हुआ, पिताजी!’ बाप की इकलौती लड़की है न- बड़ी लाड़ली लड़की है। अनावृष्टि के दिनों में फूल की कली के समान जब लड़की एकदम मुर्झा गई तो पिता के प्राण और अधिक सहन न कर सके। मान त्यागकर वे दौड़कर हमारे दरवाजे पर आए। उसके बाद? उसके बाद मन में जो काले रंग की धारा बह रही थी वह मानो काले सांप के समान रूप धरकर फुफकार उठी। उसने कहा, अच्छा है, फिर एक बार विवाह का साज सजाया जाए, रोशनी जले, देश-विदेश के लोगों को निमंत्रण दिया जाए, उसके बाद तुम वर के मौर को पैरों से कुचलकर दल-बल लेकर सभा से उठकर चले आओ! किंतु जो धारा अश्रु-जल के समान शुभ्र थी, वह राजहंस का रूप धारण करके बोली, जिस प्रकार मैं एक दिन दमयंती के पुष्पवन में गई थी मुझे उसी प्रकार एक बार उड़ जाने दो-मैं विरहिणी के कानों में एक बार सुख-संदेह दे आऊं। इसके बाद? उसके बाद दु:ख की रात बीत गई, नव वर्षा का जल बरसा, म्लान फूल ने मुंह उठाया- इस बार उस दीवार के बाहर सारी दुनिया के और सब लोग रह गए, केवल एक व्यक्ति के भीतर प्रवेश किया। फिर मेरी कहानी खत्म हो गई।
5.
लेकिन कहानी ऐसे खत्म नहीं हुई। जहां पहुंचकर वह अनंत हो गई है वहां का थोड़ा-सा विवरण बताकर अपना यह लेख समाप्त करूंगा। मां को लेकर तीर्थ करने जा रहा था। भार मेरे ही ऊपर था, क्योंकि मामा इस बार भी हावड़ा पुल के पार नहीं हुए। रेलगाड़ी में सो रहा था। झोंके खाते-खाते दिमाग में नाना प्रकार के बिखरे स्वप्नों का झुनझुना बज रहा था। अकस्मात् किसी एक स्टेशन पर जाग पड़ा, वह भी प्रकाश-अंधकार-मिश्रित एक स्वप्न था। केवल आकाश के तारागण चिरपरिचित थे- और सब अपरिचित अस्पष्ट था; स्टेशन की कई सीधी खड़ी बत्तियां प्रकाश द्वारा यह धरती कितनी अपरिचित है एवं जो चारों ओर है वह कितना अधिक दूर है, यही दिखा रही थीं। गाड़ी में मां सो रही थीं; बत्ती के नीचे हरा पर्दा टंगा था, ट्रंक, बक्स, सामान सब एक-दूसरे के ऊपर तितर-बितर पड़े थे। वह मानो स्वप्नलोक का उलटा-पुलटा सामान हो, जो संध्या की हरी बत्ती के टिमटिमाते प्रकाश में होने और न होने के बीच न जाने किस ढंग से पड़ा था। इस बीच उस विचित्र जगत की अद्भुत रात में कोई बोल उठा, जल्दी आ जाओ, इस डिब्बे में जगह है। लगा, जैसे गीत सुना हो। बंगाली लड़की के मुख से बंगला बोली कितनी मधुर लगती है इसका पूरा-पूरा अनुमान ऐसे अनुपयुक्त स्थान पर अचानक सुनकर ही किया जा सकता है। किंतु, इस स्वर को निरी एक लड़की का स्वर कहकर श्रेणी-भुक्त कर देने से काम नहीं चलेगा। यह किसी अन्य व्यक्ति का स्वर था, सुनते ही मन कह उठता है, ‘ऐसा तो पहले कभी नहीं सुना।’ गले का स्वर मेरे लिए सदा ही बड़ा सत्य रहा है। रूप भी कम बड़ी वस्तु नहीं है, किंतु मनुष्य में जो अंतरतम और अनिर्वचनीय है, मुझे लगता है, जैसे कंठ-स्वर उसी की आकृति हो। चटपट जंगला खोलकर मैंने मुंह बाहर निकाला, कुछ भी न दिखा। प्लेटफार्म पर अंधेरे में खड़े गार्ड ने अपनी एक आंख वाली लालटेन हिलाई, गाड़ी चल दी; मैं जंगले के पास बैठा रहा। मेरी आंखों के सामने कोई मूर्ति न थी, किंतु हृदय में मैं एक हृदय का रूप देखने लगा। वह जैसे इस तारामयी रात्रि के समान हो, जो आवृत कर लेती है, किंतु उसे पकड़ा नहीं जा सकता। जो स्वर! अपरिचित कंठ के स्वर! क्षण-भर में ही तुम मेरे चिरपरिचित के आसन पर आकर बैठ गए हो। तुम कैसे अद्भुत हो- चंचल काल के क्षुब्ध हृदय के ऊपर के फूल के समान खिले हों, किंतु उसकी लहरों के आंदोलन से कोई पंखुड़ी तक नहीं हिलती, अपरिमेय कोमलता में जरा भी दाग नहीं पड़ता। गाड़ी लोहे के मृदंग पर ताल देती हुई चली। मैं मन-ही-मन गाना सुनता जा रहा था। उसकी एक ही टेक थी- ‘डिब्बे में जगह है।’ है क्या, जगह है क्या जगह मिले कैसे, कोई किसी को नहीं पहचानता। साथ ही यह न पहचानना- मात्र कोहरा है, माया है, उसके छिन्न होते ही फिर परिचय का अंत नहीं होता। ओ सुधामय स्वर! जिस हृदय के तुम अद्भुत रूप हो, वह क्या मेरा चिर-परिचित नहीं है? जगह है, है, जल्दी बुलाया था, जल्दी ही आया हूं, क्षण-भर भी देर नहीं की है।
रात में ठीक से नींद नहीं आई। प्राय: हर स्टेशन पर एक बार मुंह निकालकर देखता, भय होने लगा कि जिसको देख नहीं पाया वह कहीं रात में ही न उतर जाए। दूसरे दिन सुबह एक बड़े स्टेशन पर गाड़ी बदलनी थी हमारे टिकिट फर्स्ट क्लास के थे- आशा थी, भीड़ नहीं होगी। उतरकर देखा, प्लेटफार्म पर साहबों के अर्दलियों का दल सामान लिए गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहा है। फौज के कोई एक बड़े जनरल साहब भ्रमण के लिए निकले थे। दो-तीन मिनिट के बाद ही गाड़ी आ गई। समझा, फर्स्ट क्लास की आशा छोड़नी पड़ेगी। मां को लेकर किस डब्बे में चढ लूं, इस बारे में बड़ी चिंता में पड़ गया। पूरी गाड़ी में भीड़ थी। दरवाजे-दरवाजे झांकता हुआ घूमने लगा। इसी बीच सैकंड क्लास के डिब्बे से एक लड़की ने मेरी मां को लक्ष्य करके कहा, आप हमारे डिब्बे में आइए न, यहां जगह है।मैं तो चौंक पड़ा। वही अद्भुत मधुर स्वर और वही गीत की टेक ‘जगह है’ क्षण-भर की भी देर न करके मां को लेकर डिब्बे में चढ़ गया। सामान चढ़ाने का समय प्राय: नहीं था। मेरे-जैसा असमर्थ दुनिया में कोई न होगा। उस लड़की ने ही कुलियों के हाथ से झटपट चलती गाड़ी में हमारे बिस्तरादि खींच लिए। फोटो खींचने का मेरा एक कैमरा स्टेशन पर ही छूट गया- ध्यान ही न रहा। उसके बाद- क्या लिखूं, नहीं जानता। मेरे मन में एक अखंड आनंद की तस्वीर है- उसे कहां से शुरू करूं, कहां समाप्त करूं? बैठे-बैठे एक वाक्य के बाद दूसरे वाक्य की योजना करने की इच्छा नहीं होती। इस बार उसी स्वर को आंखों से देखा। इस समय भी वह स्वर ही जान पड़ा। मां के मुंह की ओर ताका; देखा कि उनकी आंखों के पलक नहीं गिर रहे थे। लड़की की अवस्था सोलह या सत्रह की होगी, किंतु नवयौवन ने उसके देह, मन पर कहीं भी जैसे जरा भी भार न डाला हो। उसकी गति सहज, दीप्ति निर्मल, सौंदर्य की शुचिता अपूर्व थी, उसमें कहीं कोई जड़ता न थी। मैं देख रहा हूं, विस्तार से कुछ भी कहना मेरे लिए असंभव है। यही नहीं, वह किस रंग की साड़ी किस प्रकार पहने हुए थी, यह भी ठीक से नहीं कह सकता। यह बिल्कुल सत्य है कि उसकी वेश-भूषा में ऐसा कुछ न था जो उसे छोड़कर विशेष रूप से आंखों को आकर्षित करे। वह अपने चारों ओर की चीजों से बढ़कर थी- रजनीगंधा की शुभ्र मंजरी के समान सरल वृंत के ऊपर स्थित, जिस वृक्ष पर खिली थी उसका एकदम अतिक्रमण कर गई थी। साथ में दो-तीन छोटी-छोटी लड़कियां थीं, उनके साथ उसकी हंसी और बातचीत का अंत न था। मैं हाथ में एक पुस्तक लिए उस ओर कान लगाए था। जो कुछ कान में पड़ रहा था वह सब तो बच्चों के साथ बचपने की बातें थीं। उसका विशेषत्व यह था कि उसमें अवस्था का अंतर बिल्कुल भी नहीं था- छोटों के साथ वह अनायास और आनंदपूर्वक छोटी हो गई थी। साथ में बच्चों की कहानियों की सचित्र पुस्तकें थीं- उसी की कोई कहानी सुनाने के लिए लड़कियों ने उसे घेर लिया था, यह कहानी अवश्य ही उन्होंने बीस-पच्चीस बार सुनी होगी। लड़कियों का इतना आग्रह क्यों था यह मैं समझ गया। उस सुधा-कंठ की सोने की छड़ी से सारी कहानी सोना हो जाती थी। लड़की का संपूर्ण तन-मन पूरी तरह प्राणों से भरा था, उसकी सारी चाल-ढाल-स्पर्श में प्राण उमड़ रहा था। अत: लड़कियां जब उसके मुंह से कहानी सुनतीं तब कहानी नहीं, उसी को सुनतीं; उनके हृदय पर प्राणों का झरना झर पड़ता। उसके उस उद्भासित प्राण ने मेरी उस दिन की सारी सूर्य-किरणों को सजीव कर दिया; मुझे लगा, मुझे जिस प्रकृति ने अपने आकाश से वेष्टित कर रखा है वह उस तरुणी के ही अक्लांत, अम्लान प्राणों का विश्व-व्यापी विस्तार है। दूसरे स्टेशन पर पहुंचते ही उसने खोमचे वाले को बुलाकर काफी-सी दाल-मोठ खरीदी, और लड़कियों के साथ मिलकर बिल्कुल बच्चों के समान कलहास्य करते हुए निस्संकोच भाव से खाने लगी। मेरी प्रकृति तो जाल से घिरी हुई थी- क्यों मैं अत्यंत सहज भाव से, उस हंसमुख लड़की से एक मुट्ठी दाल-मोठ न मांग सका? हाथ बढ़ाकर अपना लोभ क्यों नहीं स्वीकार किया।
मां अच्छा और बुरा लगने के बीच दुचिती हो रही थीं। डिब्बे में मैं हूं मर्द, तो भी इसे कोई संकोच नहीं, खासकर वह इस लोभ की भांति खा रही है। यह बात उनको पसंद नहीं आ रही थी; और उसे बेहया कहने का भी उन्हें भ्रम न हुआ। उन्हें लगा, इस लड़की की अवस्था हो गई है, किंतु शिक्षा नहीं मिली। मां एकाएक किसी से बातचीत नहीं कर पातीं। लोगों के साथ दूर-दूर रहने का ही उनको अभ्यास था। इस लड़की का परिचय प्राप्त करने की उनको बड़ी इच्छा थी, किंतु स्वाभाविक बाधा नहीं मिटा पा रही थीं। इसी समय गाड़ी एक बड़े स्टेशन पर आकर रुक गई। उन जनरल साहब के साथियों का एक दल इस स्टेशन से चढ़ने का प्रयत्न कर रहा था। गाड़ी में कहीं जगह न थी। कई बार वे हमारे डिब्बे के सामने से निकले। मां तो भय के मारे जड़ हो गई, मैं भी मन में शांति का अनुभव नहीं कर रहा था। गाड़ी छूटने के थोड़ी देर पहले एक देशी रेल-कर्मचारी ने डिब्बों की दो बैंचों के सिरों पर नाम लिखे हुए दो टिकिट लटकाकर मुझसे कहा इस, डिब्बे की ये दो बैंचें पहले से ही दो साहबों ने रिजर्व करा रखी हैं, आप लोगों को दूसरे डिब्बे में जाना होगा। मैं तो झटपट घबराकर खड़ा हो गया। लड़की हिंदी में बोली, नहीं, हम डिब्बा नहीं छोड़ेंगे। उस आदमी ने जिद करते हुए कहा, बिना छोड़े कोई चारा नहीं। किंतु, लड़की के उतरने की इच्छा का कोई लक्षण न देखकर वह उतरकर अंग्रेज स्टेशन-मास्टर को बुला लाया। उसने आकर मुझसे कहा, मुझे खेद है, किंतु- सुनकर मैंने ‘कुली-कुली’ की पुकार लगाई। लड़की ने उठकर दोनों आंखों से आग बरसाते हुए कहा, नहीं, आप नहीं जा सकते, जैसे हैं बैठे रहिए! यह कहकर उसने दरवाजे के पास खड़े होकर स्टेशन-मास्टर से अंग्रेजी में कहा, यह डिब्बा पहले से रिजर्व है, यह बात झूठ है। यह कहकर उसने नाम लिखे टिकटों को खोलकर प्लेटफार्म पर फेंक दिया।
इस बीच में वर्दी पहने साहब अर्दली के साथ दरवाजे के पास आकर खड़ा हो गया था। डिब्बे में अपना सामान चढ़ाने के लिए पहले उसने अर्दली को इशारा किया था। उसके पश्चात् लड़की के मुंह की ओर देखकर, उसकी बात सुनकर, मुखमुद्रा देखकर स्टेशन-मास्टर को थोड़ा छुपा और उसको ओट में ले जाकर पता नहीं क्या कहा। देखा गया, गाड़ी छूटने का समय बीत चुकने पर भी और एक डिब्बा जोड़ा गया, तब कहीं ट्रेन छूटी। लड़की ने अपना दलबल लेकर फिर दुबारा दाल-मोठ खाना शुरू कर दिया, और मैं शर्म के मारे जंगले के बाहर मुंह निकालकर प्रकृति की शोभा देखने लगा। गाड़ी कानपुर में आकर रुकी। लड़की सामान बांधकर तैयार थी- स्टेशन पर एक अबंगाली नौकर उनको उतारने का प्रयत्न करने लगा। तब फिर मां से न रहा गया। पूछा, तुम्हारा नाम क्या है, बेटी? लड़की बोली,मेरा नाम कल्याणी है। सुनकर मां और मैं दोनों ही चौंक पड़े। तुम्हारे पिता-वे यहां डॉक्टर हैं उनका नाम शंभूनाथ सेन है। उसके बाद ही वे उतर गईं।
उपसंहार
मामा के निषेध को अमान्य करके माता की आज्ञा ठुकराकर मैं अब कानपुर आ गया हूं। कल्याणी के पिता और कल्याणी से भेंट हुई है। हाथ जोड़े हैं, सिर झुकाया है, शंभूनाथ बाबू का हृदय पिघला है। कल्याणी कहती है, मैं विवाह नहीं करूंगी। मैंने पूछा, क्यों?उसने कहा, मातृ-आज्ञा। जब हो गया! इस ओर भी मातुल हैं क्या? बाद में समझा, मातृ-भूमि है। वह संबंध टूट जाने के बाद से कल्याणी ने लड़कियों को शिक्षा देने का व्रत ग्रहण कर लिया है। किंतु, मैं आशा न छोड़ सका। वह स्वर मेरे हृदय में आज भी गूंज रहा है- वह मानो कोई उस पार की वंशी हो- मेरी दुनिया के बाहर से आई थी, मुझे सारे जगत के बाहर बुला रही थी। और, वह जो रात के अंधकार में मेरे कान में पड़ा था, ‘जगह है,’ वह मेरे चिर-जीवन के संगीत की टेक बन गई। उस समय मेरी आयु थी तेईस, अब हो गई है सत्ताईस। अभी तक आशा नहीं छोड़ी है, किंतु मातुल को छोड़ दिया है। इकलौता लड़का होने के कारण मां मुझे नहीं छोड़ सकीं। तुम सोच रहे होगे, मैं विवाह की आशा करता हूं। नहीं, कभी नहीं। मुझे याद है, बस उस रात के अपरिचित कंठ के मधुर स्वर की आशा- जगह है। अवश्य है। नहीं तो खड़ा होऊंगा? इसी से वर्ष के बाद वर्ष बीतते जाते हैं- मैं यहीं हूं। भेंट होती है, वही स्वर सुनता हूं, जब अवसर मिलता है उसका काम कर देता हूं- और मन कहता है- यही तो जगह मिली है, ओ री अपरिचिता! तुम्हारा परिचय पूरा नहीं हुआ, पूरा होगा भी नहीं, किंतु मेरा भाग्य अच्छा है, मुझे जगह मिल चुकी है।
स्पस्टीकरण – प्रस्तुत कहानी अपरिचिता(Aparichita by Rabindranath Thakur) गुरुदेव रबीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा रचित है। गुरुदेव रबीन्द्रनाथ ठाकुर बंगला के प्रसिद्ध साहित्यकार थे। इनकी सबसे प्रसिद्ध रचना गीतांजली है जिसके लिए 1913 में इन्हे नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ था। भारत का राष्ट्रगान भी गुरुदेव रबीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा रचित है।